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________________ (तिमपेप लेखक:-श्री बनारसीदास जैन M. 1. प्रोफेसर ओरियेंटल कॉलेज, लाहोर वन्दे श्रीविजयानन्द-सूरिं श्रद्धाद्रचेतसा । यद्ग्रन्थाध्ययनात् प्राप्ता मया जैनमते गतिः ।। “सब से पहिले (श्रावकों की ओर अंगुली कर के ) मैं इन श्रद्धालुओं की श्रद्धा को पुष्ट और पक्की करने के लिये श्री जिनमन्दिर की जरूरत समझता हूं। सो करीब करीब यह काम पूर्ण हो गया है । कहीं कहीं बाकी है वह भी धीरे धीरे हो जायगा । अब मेरी यही इच्छा है कि सरस्वती मन्दिर भी तैयार होना चाहिये और मैं इसी कोशिश में हूं। यह काम पंजाब में गुजरांवाले में हो सकता है। मैं अब उसी तर्फ जा रहा हूं। अगर जिंदगी बाकी रही तो वैशाख में सनखतरा में श्री जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा करा कर गुजरांवाला जाकर यही काम हाथ में लूंगा ॥” . [ सुशीलकृत " श्री विजयानन्दसूरि" में श्री चरणविजयद्वारा लिखित परिशिष्ट । भावनगर । वि० सं० १९९१ पृ० १२ ] ___ उपर्युक्त शब्द गुरुमहाराज के मुखारविन्द से, स्वर्गवास होने के कुछ ही पहिले नीकले थे। इन शब्दों में गुरुमहाराज के अन्तिम ध्येय का स्वरूप संक्षिप्ततया वर्णित है । वह ध्येय क्या था ? श्री महाराजजी के हाथों किस रूप को धारण करता ? इन विषयों पर इस लेख में विचार किया जायगा । ___श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के प्रथम सूत्र “ सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः " में मोक्षप्राप्ति के साधनों के क्रम का निर्देश है अर्थात् पहिले सम्यग्दर्शन, फिर सम्यग्ज्ञान और अन्त में सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होनी चाहिये ( एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरम् । भाष्य ) इसी क्रम के अनुसार महाराज साहिब ने श्रावकों की श्रद्धा को पुष्ट और पक्की करने के लिये सब से पहिले श्री जिनमन्दिर बनवाने का उपदेश दिया। इस काम के पूर्ण हो जाने पर अब गुरुमहागज का ध्यान श्रावकों के ज्ञानवृद्धि की ओर [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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