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________________ श्री. पृथ्वीराज जैन सच्चा अर्थ जनता को नहीं बताते । आगमों में मूर्तिपूजा का निषेध नहीं है, साधु को दण्ड लेकर चलने की आज्ञा है तथा अपवित्र हाथों से शास्त्रों का स्पर्श निषिद्ध है। परन्तु लोग आगम के उल्टे सीधे अर्थ कर सत्यता का लोप कर रहे हैं। तू स्वयं आगमों पर निष्पक्ष हो विचार कर तथा जैनजाति को सच्चे धर्म से आनाह करते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर ।" इन उपदेशों से यह स्पष्ट है कि ये महापुरुष अपने २ क्षेत्र में सत्यधर्म की ध्वजा हाथ में लेकर प्रविष्ट हुए थे । सच्चाई की नींव ने ही इन्हें निर्भीक होकर कार्य करने के लिये उत्तेजित किया था। उचित शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त इन दोनों कर्मवीरों ने अपने २ ध्येय की पूर्ति की ओर कदम बढ़ाये । प्रचारकार्य में दोनों का क्षेत्र अधिकतर पंजाब रहा है। पंजाब प्रान्त का वातावरण इस तरह का है कि वहां कोई भी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति अपने विचारों के कुछ न कुछ अनुयायी सुविधापूर्वक बना सकता है। प्रचलित धर्मों एवं सम्प्रदायों में कई ऐसे हैं जो इसी भूमि में पनपे हैं। आज हमें पंजाब के नगर २ में यदि कोई भी आर्यसमाजमन्दिर या जिनालय दिखाई देता है तो वह क्रमशः दयानन्दजी तथा आत्मारामजी के प्रयत्नों का शुभ फल है। इन्हीं महात्माओं की कृपा से पंजाब प्रान्त में आर्यसमाजभवनो तथा जैन मन्दिरों की स्थापना हुई है। - परोपकार, दया, करुणा आदि भाव भी इन दोनों के हृदय में प्रवाहित थे । स्वामी दयानन्द ने विधवाओं, अनाथों, अछूतों तथा मूक गौमाता की पुकार को सुना था । इस पुकार ने उनके हृदय पर गहरी चोट की । आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य इन्हीं के दुःखों को दूर कर मनुष्य जाति के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करना है । मुनि आत्मारामजी जैन धर्म के सच्चे प्रचारक व पालक थे और जैन धर्म का सर्वोन्मुख सिद्धान्त — अहिंसा परमो धर्मः' है । दीन, हीन, दुःखी, दरिद्र तथा पीड़ितों की सहायता का उपदेश दोनों ने दिया है। इन दोनों में मात्र हृदय की भावनायें ही एक हों, यह बात न थी। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से इन का शारीरिक बल भी कम न था। दयानन्द कुश्ती, अखाड़ा, दण्ड पेलने आदि के शौकीन थे। एक बार जब यह किसी नदी के रम्य तट पर विराजमान थे तो कुछ गुण्डों ने इन्हें नदी की भेण्ट कर देने की तरकीब सोची। जब वे आप को पकड़ने लगे तो आप उन्हें बगल में दबाकर नदी में कूद पड़े। अब वे गुण्डे लगे गौते खाने । आत्मारामजी ने भी बाल्यकाल में एक डूबती हुई मुसलमान औरत तथा उसके बच्चे को बचाया था। साधुवेश में भी एक दफ़ा आप ने निहायत वजनी लकड़ियों में फंसे हुए एक गधे को निकाला शताब्दि प्रथ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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