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________________ सुन्दरलाल जैन श्रावक का व्याख्यान, जो जैन दर्शन तथा चारित्र के संबंध में था, सुना गया और किसी का नहीं।" ___ श्रीयुत वीरचंद गान्धी अमरीका दो वर्ष रहे और इन दो वर्षों में उन्हों ने अमरीका के प्रसिद्ध २ नगरों में यथा वाशिंगटन, बोस्टन, न्युयार्क आदि में कुल मिलाकर ५३५ व्याख्यान दिये-कई एक व्याख्यानों में जनता की उपस्थिति हजारों तक होती थी। अनेक स्थानों पर जैनधर्म की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया । कइयों ने व्याख्यानों से प्रभावित होकर मांस खाना छोड़ दिया और अनेकों ने जैनधर्म पर शुद्ध श्रद्धा दिखाई । वहां से प्रचार करने के बाद श्रीयुत वीरचंद राघवजी इन्गलेंड, फ्रांस, जर्मनी आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार करते हुए जुलाइ १८९६ में वापिस भारत लौट आये । पाश्चात्य देशो में जैन धर्म का जो प्रचार श्रीयुत वीरचंदभाई ने किया था वह कितनी महत्त्वता लिये हुवे था यह मि. हारबर्ट वारेन (Mr. Herbert Warren) [जो अभितक जैनधर्म का पालन करते हुवे शान्तिप्रद जीवन व्यतीत कर रहे हैं ] के उद्गारों से पता चलता है । उन्हें जैनधर्म पर शुद्ध श्रद्धान हुआ इस का एक मात्र कारण श्रीयुत वीरचंद गांधी ही हैं जिन्हों ने उसके हृदय में सर्व प्रथम जैनधर्म का बीजारोपण किया। पाश्चात्य देशनिवासी जो जड़वाद के दलबल में फंसे हुवे हैं-किसी भी देश में शान्ति नहीं, दूसरे का गला घूटने के लिये हरएक तैयार है-प्रजा को सच्ची शान्ति प्राप्त नहीं, ऐसे प्रदेशों के निवासीयों को जैनधर्म की सच्ची शिक्षा मात्र ही लाभप्रद हो सकती है। इसी शिक्षा के द्वारा वे लोग सुखी जीवन व्यतीत कर अपना मनुष्य जन्म सफल कर सकते हैं । केवल एक जैनधर्म ही विश्व में ऐसा है जो संसार को सच्चे प्रेम से सात्त्विक जीवन का आनंद दे सकता है । पाश्चात्य देशों में इसी एक शिक्षा से सच्ची शान्ति हो सकती है और सब राष्ट्र प्रेमपूर्वक जीवित रह सकते हैं । श्री गुरुदेव कितने दूरदर्शी थे और उनके हृदय में जैनधर्म का सच्चा प्रेम कितना कूट कूट कर भरा हुवा था यह उनके जीवन के एक २ पन्ने से प्रगट हो रहा है । सच पूछो तो कहना पड़ता है कि पाश्चात्य देशों में क्या और भारतवर्ष में क्या ? आज जो जैन समाज में थोड़ी बहुत जागृति दृष्टिगोचर हो रही है इसका केवलमात्र श्रेय गुरुदेव को ही है जिन्हों ने उस घोर अन्धकार के समय में (जब कि जैनों में विद्या का नाम नहीं था, अनेकों कुरूढियां घरों में वास कर रही थीं, पुस्तकें केवल हस्तलिग्वित बड़ी कठिनाई से किसी को देखने को मिलती थीं, साधुसंस्था नाम मात्र की थी, जैनधर्म का शुद्ध [श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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