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________________ यह शताब्दि उत्सव हमें घोर निद्रा से जगाने के लिये ही मनाया जा रहा है। यह एक आईना है जिस में एक बार देखने से ही हमें हमारी सब त्रुटियों का अनुभव हो जायगा, आओ उन खामियों को दूर करने का प्रयत्न करें । हम में भी शक्ति है, धन भी हमारे पास है, विद्या का प्रचार भी हो रहा है और समय भी अनुकूल है। आओ, इन साधनों का उपयोग करके जाति के उत्थान में कटिबद हो जावें; परस्पर के भेदभाव को मिटा कर मैं और मेरी की निःसार चर्चा को तिलांजलि देकर, ' केवल अरिहंत भगवान् के वचनों में श्रद्धा रखकर एक हो जायें और फिर समस्त संसार को एकता का पाठ पढ़ावें । पुराने ग्रंथों का अनुशीलन कर के आजकल की निर्जीव शिक्षा में जीवन डाल दें। अपनी संस्कृति में परिशोधन कर के उज्जवल कुंदन की तरह दमकते हुये मुख से, संसार के सामने उन्नतमस्तक होकर गर्व से कहें कि " हम जैन हैं और विश्वमात्र को अहिंसा का पाठ पढ़ा कर जैन बनाना चाहते हैं । हम मन, वचन और काया से प्राणीमात्र को अभयदान देंगे और दिलायेंगे । 33 हम कहाँ है ? हम क्या थे, क्या हो गये, और क्या होंगे अभी ? आओ सब मिलकर बिचारें यह समस्यायें सभी ॥ यह बड़ा कठिन काम है सही परन्तु हमें इस की कठिनाई से भयभीत और हतोत्साह नहीं होना चाहिये। समय लगता है तो लगने दो। परन्तु इस परिश्रम का आरंभ इसी शताब्दि के दिन से हो जाना चाहिये ! ३२ Jain Education International भगवन् ! हमारा यह प्रयास सफल हो !!! For Private & Personal Use Only [ श्री आत्मारामजी www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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