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________________ श्री आचार्यदेव का स्मरण युगप्रवर्तक या पथप्रदर्शक आचार्यों का भी यह कार्य होता है । वे भी इस सज्जन की तरह जनता की भलाई के लिये मोक्षमार्ग या भलाई का नक्शा खींच दिया करते हैं । जो मनुष्य उनकी दिखाई हुई दिशा में चलते हैं और नकशे को नकशा समझा कर लाभ उठाते हैं, वे तो अपने लक्ष्य पर पहुंच जाते हैं; पर जो उनके नक्शे को ही सब कुछ मानकर उस पर ही घूमते रहते हैं, वे कोल्हू के बैल की तरह आगे नहीं बढ़ते । श्री आचार्य विजयानंदसूरिजी महाराज भी ऐसे ही पथप्रदर्शक थे । उन्हों ने वह मार्ग दिखाया जिस पर चलने से भलाई हो सकती है । पुण्यश्लोक, श्रद्धेय श्री आचार्यदेव को भी हमें उनकी इस जन्मशताद्वि के समय एक युगप्रवर्तक या प्रदर्शक रूप में ही स्मरण करना चाहिये । आप ने साधारणतः जनता मात्र में विशेषतः जैन समाज में एक नवयुग का प्रवर्तन कर दिया । आपने उनके आचारविचारों में एक क्रान्ति पैदा कर दी । आज पंजाब के सैकड़ों जैन मन्दिर आप की चिरस्थायिनी कीर्ति को उद्घोषित कर रहे हैं । इस के अतिरिक्त आपकी पुण्यमयी स्मृति में इतस्ततः बनाए हुए अनेक भवन, पुस्तकालय तथा फण्ड आप के नाम को अजर, अमर कर रहे हैं । आप गुणों के अगाध सागर थे । समस्त शास्त्रों के धुरंधर विद्वान थे । आप के एक ही गुण के संस्मरण से मनुष्य संसार - सागर को तैर सकता है । हम यहां आप के एक ही गुण का कुछ उल्लेख करेंगे । संसार की महाविभूतियों के जीवनों के अनुशीलन से पता लगता है कि कुविचार, कुरूढ़ि तथा कुप्रथाओं में ग्रस्त जनता को सुमार्ग पर चलाने के लिये जिन गुणरत्नों की आवश्यकता है, उनमें सत्यप्रियता या सत्यनिष्ठा भी एक है । संसार में सत्य के सिवा ऐसा अन्य कोई मुकुट नहीं, ऐसा कोई रत्न नहीं, ऐसा कोई राजदण्ड नहीं और नहीं कोई ऐसा राजछत्र ही है तिसके धारण अथवा ग्रहण करने से मनुष्य सर्वत्र एवं सब के सामने निःशंक तथा निस्संकोच जा सके । यही कारण है कि सत्यनिष्ठ सुधारक निर्भीक भी होते हैं । " सत्ये नास्ति भयं कचित् । " वे ऐसे दृढ़ होते हैं कि उनका मन अपनी स्तुति और प्रशंसा की बांसुरी की मधुर तान सुन कर भी डावांडोल नहीं होते। महाप्रतापी राजाओं के भयंकर विरोधों के सामने भी वे तिल भर भी विचालित नहीं होते ठीक कहा है: “ विभैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति । " [ श्री आत्मारामजी • २४ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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