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________________ यति श्री बालचंद्राचार्यजी महाराज ___वि. संवत् १९४० का चातुर्मास, आप का, शहर बीकानेर (राजपूताना) में हुआ था। उस समय मेरी उमर लगभग ७-८ वर्ष की थी। उस समय मुझे चार पांच हजार श्लोक कंठस्थ थे । मैं व्याकरण पढ़ रहा था। मैं निरंतर मेरे गुरुवर्य प्रातःस्मरणीय श्रीमान् केवलचन्द्रजी सूरिजी के साथ में ही रहता था। उस समय के पढ़े हुवे पाठ आजतक कंठाग्र हैं। प्रातःकाल में जो कुछ पाठ करा देते थे वह मुझे पांच सात दिन प्रातःकाल में पढ़ लेने पर पक्का आजाता था। एक दिन हम दोनों गुरु-शिष्य श्रीगोड़ी पार्श्वनाथस्वामी मंदिर को दर्शनार्थ गये । उक्त मंदिर शहर के बाहिर गोगा दरबाजे से आधा मील की दूरी पर है । हम दर्शनार्थ जा रहे थे और महाराज श्री आत्मारामजी शिष्यसमुदाय के साथ दर्शन करके लौट रहे थे। मार्ग में हमारी मुलाकात हुई। दोनों के परस्पर अभिवादन के पश्चात् ज्ञानचर्चा जो होने लगी तो लगभग आधे घंटे से कुछ अधिक समय तक बातें दोनों में होती रहीं। मैं खड़े २ थक गया और मैं ने अपने गुरुजी से कहा "गुरुजी, अब चलो"; उस समय महाराजश्री ने मेरे से कुछ पूछा भी और मैं ने भी कुछ कहा । इतना अबतक मुझे स्मरण है परंतु क्या पूछा ? और मैं ने क्या कहा ? यह मेरे स्मरण में नहीं है। परंतु मुझे साक्षात्कार जो हुआ है वह बराबर हृदय में अंकित है, क्यों कि उक्त घटना के पश्चात् मेरे गुरुजी से अत्यन्त प्रेम होने से मैं कईबार गया आया था । महाराजश्री का शहर बीकानेर में आगमन हुआ उस समय कई भव्य श्रावकों की यह इच्छा हुई कि-महाराजश्री का जुलुस ( सामैया ) राजकीय बैन्ड बाजे के साथ बड़े धूमधाम से किया जाय परंतु राज्य का प्रबंध ऐसा है कि-गच्छपतियों के महले बटे हुवे हैं, अन्यतर वहां बाजे नहीं बजा सकते । इसलिए वेन्ड मिलना अशक्य था; परंतु मेरे गुरु महाराज ने यह कार्य आसानी के साथ कर दिया । उसके पश्चात् आप की और मेरे गुरुजी की अनेक बार मुलाकात होती रहती थी। खरतरगच्छीय यतिवर्य महोपाध्याय लक्ष्मीप्रधान गणिजी के शिष्य मोहनमुनिजी भगवती सूत्र का अवलोकन महाराजश्री से किया करते थे। बीकानेर के चातुर्मास में यति समुदाय के साथ महाराजश्री का बड़ा संतोष रहा । जो सज्जन यह कहते हैं कि-यतियों का विरोध था यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती--अस्तु । मंत्रवाद के संबंध में एक चमत्कार उस समय यह देखा गया कि-एक सेठिये जाति का श्रावक का पुत्र लगभग १५-१६ वर्ष की उमर का महाराजश्री से दीक्षा लेना चाहता था, परंतु मातापिता का एकलौता पुत्र होने से मातापिता का दीक्षा से विरोध था, शताब्दि ग्रंथ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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