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________________ श्री आस्मारामजी और हिन्दी भाषा विजयानंदसूरिवर प्रसिद्धनाम आत्मारामजी महाराज, जो आज से अनुमान ४० वर्ष पहिले हमारे देखते-देखते हमारी आंखों से, अलग हो स्वर्गलोग में जा बिराजे, उनके अगणित गुण-कीर्तन में जिह्वा बलहीन और लेखनी कुंठित हो जाती है । उक्तं च है शक्ति थोड़ी सब गुणों को आप के कैसे कहें ? होगा न जैनाचार्य दूजा, आप मुनि ! जैसे रहे ॥ श्री आत्मारामजी महाराज जैनकुलोत्पन्न न थे, वह थे एक महान योद्धा क्षत्री के पुत्र । क्षत्रियत्व था उनकी नस-नस में। उनकी साधुवृत्ति भी क्षत्रियत्व से खाली न थी। वह थे सद्धर्मप्रचारक, वह थे जैनशासन के युगप्रधान, वह थे जैन धर्मप्रभावक, वह थे जैन प्रजा के ज्योतिर्धर, वह थे वादिमुखभंजक, उनमें थी कला निरुत्तर करने की, उनमें थी शक्ति परास्त करने की, बरसता था नूर उनके चेहरे पर, बरसती थी पीयूषधारा उनके मुखारविंद से, लगजाती थी झड़ी युक्तिप्रमाणों की जब वह व्याख्यान देते थे, झुकते जान अजान चरणों में जब दिखती थी दिव्यमूर्ति चली जाती । उनकी अलौकिक आकृति पर दृष्टिपात होते ही सज्जनों के हृदय में प्रेम, भक्ति और पूज्यभावना की तरंगे उछलने लगती हैं, रोमरोम विकसित हो जाता है, दर्शन करते २ तृप्ति नहीं होती, विवश यही शब्द निकलते हैं कि जिस दीर्घनयन, विशालललाट और देवतास्वरूप की यह मनोहर छबी है, वह जरूर धर्ममार्त, सत्यवक्ता, परमसाहसी, निर्भीक, विशेषज्ञ, विद्वानशिरोमणि, परमपुरुषार्थी, बालब्रह्मचारी, दूरदर्शी, विद्यावारिधि, सकलगुणनिधान, धीर, वीर, गंभीर और अवतारी पुरुष हैं। जीवन की सफलता चारित्र में है, और चारित्र की झलक आकृति-मूर्ति में । शास्त्र पढ़ने, समझने और समझाने आसान हैं, परंतु उन्हें जीवन में उतारना अर्थात् उन पर अमल करना बड़ा कठिन है। इन महात्मा में यह दोनों गुण विशिष्ट रूपसे विद्यमान थे, वह ज्ञानक्रिया सम्पन्न थे। इन महात्मा के दर्शन करनेवाले इनकी अमृतमय वाणी पान करने और धर्मतत्त्वों का श्रवण करने वास्ते कहीं नहीं जा सकते थे, यह मेरे हृदय के सच्चे उद्गार हैं, जिनको आप के सामने प्रकट करने में संकोच की किञ्चिदपि आवश्यकता नहीं। श्री आत्मारामजी महाराज वीसवीं सदी के प्रचंड तेजस्वी दिवाकर थे, जिनकी बुद्धि के वैभव की प्रभा अमेरिका आदि दूर देशों तक पहुंची थी। चिकागो सर्वधर्म परिषद् में पधारने के लिये आप को आमंत्रण आया था, परंतु साधुवृत्ति में वहां न पहुंच सकने के कारण, सामाजिक विरोध होने पर भी, आपने श्रीमान् वीरचंद राघवजी गांधी बार-एट-लॉ को अपना प्रतिनिधि तरीके वहां भेज दिया । यह था उनका क्रांतिकारी कार्य । [ श्री आत्मारामजी .: २ :. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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