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________________ मेरा जीवन-क्रम सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री स्वयं अपने सम्बन्ध कुछ लिखते हुए बड़ी कठिनाईका अनुभव होता है। प्रत्येक मनुष्यमें गुणोंके साथ कुछ दोष भी होते ही हैं । मेरेमें भी दोष है किन्तु इतना आत्मबल नहीं कि कविवर बनारसीदासजीकी तरह उन्हें जनताके सामने रख सकूँ । फिर भी, अपना यत्किंचित् परिचय देता हूँ। मेरा जन्म वि०सं० १९६०के कार्तिकमासमें शक्लपक्ष की द्वादशी को हआ था। उस समय मेरी माता घरमें एकाकी थी। सब परिवार हस्तिनापुरके वार्षिक मेले में गया था। जन्मस्थान उत्तर प्रदेशके विजनौर जिलेमें नहटौर नामक कस्बा है । वहाँ जैनोंकी संख्या जिले में सबसे अधिक है । मकानसे एकदम लगा जैनमन्दिर है और उसीके सामने जैन पाठशाला का मकान है। जब वहाँ मन्दिर नहीं बना था, तब हमारे ही घरमें मन्दिर था। आज भी पक्की पुख्ता वेदी हमारे घरमें स्थित है। उस भाग को काममें नहीं लाया जाता और द्वार सदा बन्द रहते हैं । यह उस समयके धार्मिक आदरभाव का एक नमूना है। मेरी माता पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी। उस समय स्त्रियों को पढ़ाना अच्छा नहीं माना जाता था। किन्तु थी धार्मिक और समझदार। उनके पिता साहकारी करते थे और गोम्मटरसारके ज्ञाता थे । जब मैं पढ़ लिख गया, तो वे शास्त्र चर्चा करते थे। मेरे पिताजी बहुत साधारण लिखना-पढ़ना जानते थे । वे मुसहीलाल पंसारीके नामसे कस्बे और देहातमें प्रसिद्ध थे। उनकी पंसारे की दुकान थी और खूब चलती थी । किन्तु वे इतने उदार थे कि उन्होंने कभी संचय नहीं किया । मेरी शिक्षा कस्बेके प्राइमरी स्कूल में हई। उस समय हमारे प्रदेशमें उर्दू का ही चलन था। किन्तु मुझे हिन्दी लिवाई गई। कुछ लोगोंने कहा भी कि यह हिन्दी पढ़कर क्या करेगा। किन्तु कहा है कि जैसी भवितव्यता होती है, वैसी ही सहायक सामग्री भी मिल जाती है। जैन पाठशालामें मैं धार्मिक शिक्षा लेता था । मन्दिरमें शास्त्र सभा होती थी। अपनी माताके साथ मैं जाता था और पुराण सुना करता था। अपनी माताके धार्मिक जीवन का मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा। उसी समय हस्तिनापुरमें जैन गुरुकुल स्थापित हुआ था और उसमें मुझे प्रवेश करानेकी बात चली थी। उस साल भी मेरा परिवार हस्तिनापुरके मेले में गया था। वहाँ मैंने सुना कि पं० गोपालदासजी बरैया आये हैं। वह शास्त्र प्रवचन करते हैं और शास्त्र देखे बिना घण्टों बोलते हैं। यह सुनकर मेरे बाल मनमें यह जिज्ञासा हुई, क्या मैं भी ऐसा शास्त्र बाँच सकूँगा? हमारे कस्बेमें एक बाब द्वारकाप्रसा थे। वह कलकत्तामें गैरीसन इन्जीनियर थे। उन्हें सरकारकी ओरसे रायबहादुरीकी उपाधि मिली थी। बड़े शिक्षा प्रेमी और उदार थे । अपने कस्बेके कई होनहार असमर्थ बालकोंको सहायता देकर उन्होंने योग्य बनाया था। वह जब भी नहटौर आते थे, जैन पाठशालामें पधारते थे और बालकोंकी परीक्षा लेते थे, मिष्ठान्न वितरण करते थे। उसी अवसरपर मैं उनकी दृष्टिमें आ गया। शिक्षाप्रेमी होनेसे वह काशीके स्यादाद महाविद्यालयसे भी परिचित थे। उन्हीं के प्रयत्नसे मेरा प्रवेश महाविद्यालयमें हआ। उस समय मेरी अवस्था ग्यारह वर्षकी थी। सबसे छोटा पुत्र होनेके कारण मैं तबतक भी अपनी माँके पास सोता था । जीवनमें प्रथम बार मुझे माँका वियोग सहना पड़ा। किन्तु मेरे बड़े भाई मुझे पहुँचाने गये थे और रेलयात्राका आकर्षण था, अतः वियोग खला नहीं । किन्तु जब मेरे भाई मुझे विद्यालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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