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________________ रुहेलखण्डके बिजनौर जनपदकी जैन विभूतियाँ __ पं० श्रेयांसकुमार शास्त्री, किरतपुर ( बिजनौर ) रुहेलखण्डका क्षेत्र और जैन संस्कृति-उत्तरप्रदेश राज्यके बरेली राजस्व संभागके सात जिले ( बरेली, बिजनौर, मुरादाबाद, बदायू, रामपुर, पीलीभीत, और शाहजहाँपुर ) अठारहवीं सदीके मध्यके लगभग रुहेले पठानोंके संसर्गके कारण रुहेलखण्ड कहलाते हैं। इसके पूर्वके ८-९ सौ वर्षों तक यह क्षेत्र कटहरिया राजपूतोंके कारण कटेहर कहलाता था। इसके पूर्व भी यह क्षेत्र महाभारत कालसे लेकर आठवींनवमीं सदी तक पांचाल देशका उत्तरी भाग माना जाता था। इस क्षेत्रके विभिन्न भागोंमें अति प्राचीन कालसे ही जैनोंके धर्मायतन, तीर्थस्थान तथा सांस्कृतिक केन्द्र रहे हैं। यहाँ अनेक स्थानोंपर जैन रहते थे । पिछले सौ वर्षो में तो इस क्षेत्रने जैनधर्म और समाजके प्रगतिपथमें अनेक मीलके पत्थर दिये हैं। इस क्षेत्रके विभिन्न जिले गंगा नदी और हिमालयी पर्वतांचलके मध्यवर्ती तराई और मैदानी भागोंमें बसे हैं। इस क्षेत्रके साथ जैन संस्कृतिका सम्बन्ध प्रायः भारतीय इतिहासके प्रारम्भसे ही रहा है। अयोध्यामें जन्मे भगवान् आदिनाथने अपने मुनिजीवनमें मध्य हिमालयके इन पवित्र प्रदेशोंमें तपस्या की और केवलज्ञान प्राप्तिके बाद हस्तिनापुरके साथ इस प्रदेशमें भी विहार कर उपदेश दिया। अन्तमें, वे रुहेलखण्डके मैदानी भागोंमें धर्मविहार करते हुए कुपायू गढ़वाल होते हुए कैलाश पर्वत पर गये और वहाँसे सिद्ध हुए। उनके पुत्र चक्रवर्ती उनका निर्वाण महोत्सव मनाने इसी मार्गसे होकर कैलाश गये थे । दशवों सदीमें जिनसेन द्वारा रचित आदिपुराणके पर्व १६, २५, २९ और ३२ में भगवानके उपदेश तथा भारतकी दिग्विजयके प्रकरणमें इस क्षेत्रका पांचालके रूपमें नाम दिया गया है। हरिवंशपुराणके सर्ग ११ में पांचाल देश और उसके उत्तरवर्ती हिमायस्थ पहाड़ी प्रदेशोंका वर्णन किया गया है । भगवान ऋषभदेव और भरत चक्रवर्तीके उपरान्त अनेक चक्रवतियोंने भी इस क्षेत्रपर शासन किया। इतिहाससे ऐसा प्रतीत होता है कि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथका इस क्षेत्रसे कुछ अधिक सम्बन्ध रहा है। जिनप्रभ सूरिने बताया है कि पांचाल देशकी महानगरी शंखावतीमें भगवान् नेमिनाथका प्राचीन तीर्थ था। यहाँ भगवानकी प्रतिमाके साथ ही उनकी शासन देवी सिंहवाहिनी अम्बिका देवीकी मूर्ति भी प्रतिष्ठित थी। नेमिनाथका जीवनकाल ईसा पूर्व इक्कीसवीं सदीके लगभग बैठता है। यह शंखावती भगवान् पार्श्वनाथ ( ८७७-७७७ ई० पू० ) की तपोभूमि और ज्ञानकल्याणक भूमि भी रही। इसके समीपवर्ती भीमाटवी महावनमें शंबर असूरने पूर्व वैर-वश उनपर घोर उपसर्ग किया। धरणेन्द्र पद्मावतीने इस उपसर्गका निवारण किया । इस कथाका विस्तृत विवरण पासणाहचरिउमें मिलता है । यह नगरी, इसीलिए, अहिच्छत्र कहलाने लगी। इसके बाद ही, पार्श्वनाथ केवली हुए और यहींपर उन्होंने अपने धर्मोपदेश प्रारम्भ किये। इस घटनाके कारण ही रुहेलखण्डका यह स्थान तीर्थक्षेत्र बना। इस क्षेत्र पर बने विशाल कपका जल अनेकों रोगोंको शान्त करता है। अतः अहिच्छत्रको अतिशय क्षेत्र भी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पात्रकेसरी स्वामीको भी सम्यग्दष्टि यहीं प्राप्त हुई थी। इसे कण्व ऋषिकी जन्मभूमि भी कहा जाता है। यद्यपि इस क्षेत्रमें जैनोंकी विरलतासे लगभग एक हजार वर्ष तक यह स्थान अज्ञात एवं उपेक्षित-सा पड़ा रहा है, फिर भी पात्रकेसरी स्वामी कथा ( सातवीं सदी), बृहत्कथा कोश ( दसवीं सदी), पुण्यास्रवकथा कोश तथा विविधतीर्थ कल्प ( चौदहवीं सदी), आराधनासार कथाकोश ( सोलहवीं सदी) तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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