SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह नाटक १२३० ई० के पश्चात् लिखा गया है। इसमें आठ अंक हैं। यह नाटक सुरथोत्सव, कीर्ति कौमुदी महाकाव्यों तथा कर्णामृत नामक काव्य संग्रहके प्रणयनके बाद लिखा गया है। इनका रामशतक भी एक सौ रुग्धरावृत्तोंमें रचित रामभगवानका स्तोत्र काव्य है। इनके अभिलेख प्रशस्तियोंकी तिथियाँ १२११, १२३१ तथा १२५४ ई० स्पष्ट हैं। सिन्धी जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित प्रबन्धकोण नामक ग्रन्थमें सोमेश्वरदेवके सम्बन्धमें बहुतसे प्रसंग हैं । उदाहरणार्थ, एक बार वे मंत्री वस्तुपालके साथ सम्मात गये। वे दोनों समुद्रतट पर नौकाओंसे उतरते हुये विदेशी घोड़ोंको देख रहे थे। वर्षा ऋतु होने पर भी समुद्र शान्त था। इस पर मंत्रीने कविकी ओर देखकर श्लोकार्ध कहा : "प्रावृट् काले पयोराशिरासीद् गर्जितवर्जितः" । (वर्षा कालमें भी जलकी राशि-समुद्र गर्जन नहीं रहा है) सोमेश्वरदेवने उत्तर देते हुये तत्काल श्लोकको पूरा किया : "अन्तःसुप्तजगन्नाथ निद्राभंगभयादिव"। (जगतके स्वामी समुद्रके अन्दर सो रहे हैं। उनकी नींद टूटने के भयसे समुद्र नहीं गरजता)। इस समस्या पूर्ति पर मंत्रीने सोमेश्वरदेवको सोलह घोड़े दे दिये। एक अन्य प्रसंगमें मंत्री सोमेश्वरदेवके सम्मुख एक समस्या रखी : "काकः किं वा क्रमेलकः ?" कविने निम्न प्रकारसे समस्यापूर्ति की। येनागच्छन् ममख्यातो येनानीतश्च मत्पतिः । प्रथमं सखि कः पूज्यः काकः किं वा क्रमेलकः ।। (नायिका अपनी अन्तरंग सखीसे पूछती है)। "हे सखी, कौयेने आँगनमें शब्द करके मुझे सूचना दी कि प्रवाससे मेरे पति आ रहे हैं, दूसरी ओर ऊँटने मेरे पतिको मेरे पास पहँचा ही दिया। इस दोनोंमेंसे मेरा प्रथम पूज्य कौन है, कौआ या ऊँट ?" इस पद्य पूर्तिपर भी मंत्री कविको सोलह हजार द्रम्भ दिये। सुरथोत्सवके प्रशस्ति सर्गमें स्वयं कविने लिखा है कि हरिहर, सुभट आदि श्रेष्ठ कवियोंने उसके गुणोंकी प्रशंसा की है : श्रीसोमेश्वरदेवस्य कवितु : सावितुश्च को ।। स तृणाभ्यावहारस्य निरासेऽपि रसप्रदा ॥१४-४२।। उल्लाघ राघव नाटककी प्रस्तावनामें सूत्रधार महाकवि सोमेश्वरदेवका परिचय नटीको देता है। वह कहता है कि चालुक्यचक्रवर्ती मंत्री वस्तुपालने कविके सम्बन्धिमें स्वयं कहा है : यस्यास्ते मुखपंकजे सुखऋचा वेदः स्मृतिर्वेद यः त्रेता सद्मनि यस्य यस्य रसनां सूते सूक्तामृतम् । राजानः श्रियमर्जयन्ति महतीं यत्पूजया गूर्जराः कर्तुं यस्य गुणस्तुति जगति कः सोमेश्वरस्येश्वरः ॥ उपरोक्त अनेक उद्धरणोंसे सोमेश्वरदेवकी काव्य-प्रतिभाके अनेक रूपोंके दर्शन होते है। ऐसे कविको अपने जीवनकालमें अनेक विरोधोंका भी सामना करना पड़ा था। लेकिन ये विरोध कविके काव्य-रसकी घुटीके विलयित हो गये और वह काव्याकाशका एक पुखर नक्षत्र प्रमाणित हुआ। इनकी उपरोक्त अनेक रचनाओं पर चतुर्भुखी शोध की जा रही है। - ४९० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy