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________________ लिये अलंकारोंका समावेश किया है। कविने अपने ग्रन्थोंके शब्दालंकार और अर्थालंकारका यथेष्ट प्रयोग किया है। अनुप्रास, यमक, श्लेषोपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, परिसंख्या, भ्रान्तिमान्, विरोधाभास आदि अलंकारोंसे ग्रन्थ परिपूर्ण है । श्लेषोपमा आदि अलंकारोंके प्रसंगमें रचना कहीं-कहीं दुरूह हो गयो है । रस काव्यकी आत्मा है। महाकविके ग्रन्थोंमें रसोंका सुन्दर समावेश पाया जाता है। वर्धमानचरितमका अंगी रस शांत है। इसमें संयोग श्रृंगारका वर्णन मिलता है किन्तु इसके प्रसंग बहत विप्रलम्भका वर्णनमात्र एक श्लोकमें हुआ है जिसमें त्रिपृष्ठका मरण होनेपर शोक विह्वल स्वयंप्रभा मरनेके लिए उद्यत बतलाई गई है। काव्यमें शान्त रसके अनेक प्रसंग हैं । उदाहरणार्थ-राजा नन्दिवर्धन आकाशमें विलीन होते हुये मेघको देखकर संसारसे विरक्त होता हुआ वैराग्य चिन्तन करता है (सर्ग २। १०-३४) । प्रजापतिका वैराग्य चिन्तन (सर्ग १४।४०-५३) और तर्थंकर महावीरका निष्क्रमण कल्याणक (सर्ग १७१०२-११६) भी इसी रसमें है। स्वयंप्रभा और त्रिपृष्ठके विवाहमें शृङ्गार तथा कुपित अश्वग्रीव और विद्याधर राजाओंकी गर्वोक्तिसे वीर रसकी उद्भुति होती है । रणक्षेत्रमें दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध होनेपर वीर रसका परिपाक होता है । अश्वग्रीवकी सेनाका प्रयाण तथा विश्वनन्दीको आता देख भयसे काँपता हुआ विशाखनन्दी जब कपित्थके वृक्ष पर चढ़कर प्राण संरक्षण करना चाहता है, तब भयानक रसका दृश्य उपस्थित होता है (सर्ग ४१७७)। यद्यपि शांतिनाथपुराण में भी अंगीरसके रूपमें मुख्यतः शान्त रसका वर्णन हुआ है पर अन्य रसोंका वर्णन भी अंग रूपमें हुआ है। चक्रवती दयितारि और अपराजित तथा अनन्तवीर्य के युद्ध प्रसंगमें वीर रसका वर्णन हआ है। दयितारि और गायिकाओंके प्रसंगमें तथा सहस्रायुद्धको जलकीड़ामें शृगार रसका वर्णन है । वैराग्य प्रसंग प्रचुरतासे वर्णित है। राजा स्मितिसागरने भगवान स्वयंप्रभके समवसरणमें पुरुषार्थको सिद्ध करनेवाले धर्मको सुनकर जेष्ठ पत्रको राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षा लेली (११६९-७२) । छठे सर्गमें सुमति एक देवीसे पूर्वभव सुनकर संसारसे विरक्त हो गई अजिका बन गयी। चक्रवर्ती शान्ति जिनेन्द्र के वैराग्य प्रसंग आदिमें शान्त रसका वर्णन हुआ है। महाकवि असगने अपने पूर्ववर्ती साहित्यसागरका अच्छी तरह अवगाहन किया, अतः उनकी रचनाओं पर पूर्ववर्ती कवियोंका प्रभाव परिलक्षित होता है । कुन्द-कुन्द, पूज्यपाद तथा अकलंक आदिके सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ा। रघुवंश, कुमारसम्भव, शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित तथा किरातार्जुनीयके कितने ही भाव असंगने ग्रहण किये हैं। वर्धमानचरितके श्लोकोंका साम्य जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माम्युदयमें मिलता है । यहाँ यह शोधका विषय है कि किसने किससे भाव ग्रहण किये हैं। महाकवि असगने भी अपने परवर्ती कवियों पर अपनी छाप छोड़ी है। केशीराज (१२०० ई०)ने शब्दमणिदर्पणमें असगकी कविताओंमेंसे अनेक उद्धरण लिये है। पोन्न पर असगके शान्तिपराणकी छाप है। नागवर्मा कन्ना आदि कवियों पर वर्धमानपुराणका प्रभाव पड़ा है। महाकविका संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है। कहीं भी भाषा शैथिल्यके दर्शन नहीं होते । रमानुकूल भाषाका प्रयोग किया गया है। कहीं अल्पसमासवाले, कहीं बृहत् समासवाले पदोंका प्रयोग हुआ है । ग्रन्थोंमें शब्दसौष्ठव और अलंकरणकी रमणीयता सर्वत्र पाई जाती है। बाह्य सौन्दर्य वर्णनके साथ ही १. स्वयंप्रभामनुमरणार्थमुद्यतां वलस्तदा स्वयसुपसान्त्वनोदितैः । इदं पुनर्भवशतहेतुरात्मनो निरर्थकं व्यवसितमित्यवारयत् ॥१०-८७।। - ४८५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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