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________________ जैनोंने उसका उपयोग नहीं किया, इसके विपरीत उन्होंने राजवार्तिक तथा त्रिलोकसारके अनुसार यह माना कि चन्द्र, सूर्य आदिके बिम्बोंको चलने के लिये सोलह हजार देवता अपनी ऋद्धिके अनुसार सिंहगज, वृषभ आदिके रूपमें निरन्तर लगे रहते हैं। छोटे ग्रहोंके बिम्बोंके वाहक देवताओंकी संख्या क्रमशः कम होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त जैन शास्त्रोंके अनुसार सूर्य तपाये सोनेके समान चमकीला, लोहिताक्ष मणिमय, ४८.६१ योजन लम्बा-चौड़ा (व्यास), २४.११ योजन ऊँचा, तिगुनेसे अधिक परिधि, १६००० देवताओंसे वाहित बीचमें कटे हुये आधे गोलेके समान है । यह सूर्य जम्बू द्वीपके किनारे-किनारे प्रदक्षिणा करता है । जब सूर्य निषध पर्वतके किनारे पर आता है, तब लोगोंको सूर्योदय मालूम होता है । जब यह सूर्य निषध पर्वतके पश्चिम किनारे पर पहुँचता है, तब उसका अस्त होता है। अब यदि कोई मनुष्य उदय होते समय सूर्यकी ओर मुख करके खड़ा हो जाय, तो वह देखेगा कि सूर्यका अस्त पीठको तरफ नहीं हुआ है किन्तु बाएँ हाथकी तरफ हुआ है। पीठकी तरफ तो लवण समुद्र रहेगा, उस ओर सूर्य नहीं जाता। इस ओर कोई पर्वत न होनेसे सूर्यको कोई ओट न मिलेगी, इसलिये सूर्य अस्त न होगा। यदि निषधकी पूर्वी नोंककी ओर कोई मुख करके खड़ा हो जाय, तो निषध पर्वतकी पश्चिमी नोंक उस आदमीके उत्तरमें पड़ेगी। इसका यह अर्थ है हमारी दृष्टिमें सूर्य पूर्वमें उगता है और उत्तर में डूबता है। यह मत कितना अनुभव विरुद्ध है, इसे सभी जान सकते हैं। यही नहीं शास्त्रोंमें यह बताया गया है ज्योतिबिम्बोंके अर्धगोलकका गोल हिस्सा नीचे रहता है और चौरस विस्तृत भाग ऊपरकी ओर रहता है। चूंकि हम उनका गोल हिस्सा ही देख पाते हैं, इसलिये वे हमें गोलाकार दिखते हैं। सूर्य विश्वकी यह आकृति उदय-अस्तके समय दिखनेवाली आकृतिसे मेल नहीं खाती। क्योंकि यदि आधी कटी हई गेंद हमारे सिरपर हो, तब तो वह पूरी गोल दिखाई देगी। किन्तु वह यदि सिर पर न हो, बहत दूरपर कूछ तिरछी हो, तो वह पूरी गोल दिखाई न देगी, किन्तु वह अष्टमीके चन्द्रके समान आधी कटी हई दिखाई देगी। परन्तु सूर्य तो उदय, अस्त और मध्याह्न के समय पूरा गोल दिखाई देता है और चन्द्रमा भी पूर्णिमाकी रातमें उदय, अस्त और मध्यरात्रि पूरा गोल दिखाई देता है। इस तरह तीनों समयोंमें आधी कटी हई गेंदके समान किसी चीजकी एक-सी आकृरि नहीं दिख सकती। जैनोंकी आधी कटी गेंदकी आकृतिकी कल्पनाका आधार यह था कि आधे कटे सपाट मैदानपर नगर और जिन मन्दिर प्रदर्शित किये जा सकें । पर यह आकृति सदैव गोल दिखती है, यह कल्पना कुछ विसंगत प्रतीत होती है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण जैनशास्त्रोंके अनुसार सूर्यग्रहण इसलिये पड़ता है कि उसके नीचे केतुका विमान है। इसी प्रकार चन्द्रग्रहण भी इसीलिये होता है कि उसके नीचे राहुका विमान है। चन्द्रमाकी कलाओंके घटने-बढ़नेका कारण भी उसके नीचे स्थित राहुका विमान ही है । राहु और केतु के विमानोंका विस्तार कुछ कम एक योजन है, जो सूर्य और चन्द्रके विमानोंसे कुछ बड़े हैं। ये छह महीने में सूर्य और चन्द्रके विमानोंको ढंकते हैं। इस मान्यतामें भी निम्न विसंगतियाँ प्रतीत होती हैं : -४५२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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