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________________ है, ठीक वैसे ही जैसे वे अभी भी गणेशप्रसाद वर्णी और कानजी स्वामीकी उपस्थिति आत्मसात् कर रहे हैं । वास्तविकताकी स्वीकृति देने में पंडितजी सर्वदा अग्रसर रहे हैं । वे पंडितकी अपेक्षा ज्ञानी अधिक हैं। घिसी-पिटी लोकपर आंख मींचकर चलना उनके स्वभाव के विरुद्ध है। पंडिजीने जैसे ज्ञानको दिशा ग्रहण की, वैसे ही वे चरित्रकी दिशा भी ग्रहण करेंगे, तो देश और समाजद्वारा तृतीयवर्णी के रूपमें प्रतिष्ठित और पूज्य भी हो सकेंगे। 1 अतीत से आजतक मेरी आंखें यह देखनेके लिये अतीव उत्सुक रही हैं कि किसी व्यक्तित्वमें ज्ञान और चरित्रका कांचन और मणि सदृश संयोग हो, तो मैं उसे अपनी श्रद्धा निधि समर्पित कर प्रणाम कर लूँ और उससे जीवनदायी प्रेरणा ग्रहणकर अहोभाग्य समझें। पंडितजी बहुविज्ञ प्रशस्त और प्रणम्य हैं। वे सफलता के और भी समीप पहुँचे। उनके प्रति मेरी यही सद्भावना और शुभकामना है । मेरी नजर में प्रतापचन्द्र जैन, आगरा प्रथम दर्शन - आगरा दिग० जैन वोटिंग हाउसका मैदान और मोसम सर्दीका वार्षिक उत्सवका दूसरा दिन था। गैसके हंडों और बिजलीसे जगमगाता पण्डाल स्त्री-पुरुषोंसे खचाखच भरा था। उस दिन बड़ी उत्सुकतासे किसीकी प्रतीक्षा की जा रही थी। लोगों में शामसे ही जोरोंकी चर्चा थी कि आज बनारससे कोई पण्डितजी आ रहे हैं, जो बड़े ऊंचे विद्वान् हैं। सुनते हैं कि जब वे बोलते हैं, तो श्रोता मुग्ध हो जाते हैं । आज रात उनका व्याख्यान होगा । रात्रिके साढ़े सात बजे होंगे कि मंच से स्व० सेठ मटरूमल बैनाड़ा खड़े हो गये और बोले कि पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पधार रहे हैं। वे पण्डालमें प्रवेश कर चुके हैं। सुनते ही सबकी निगाह प्रवेश द्वारक ओर र्थ - कुर्ता-धोती और वेस्टकोट पहने, शिर पर गोल फैल्ट कैप और आँखों पर चश्मा लगाये एक सौम्यपूर्ति मंचकी ओर चली आ रही थी। वहाँ पहुँचते ही उन्हें आदरपूर्वक बैठाया गया। वे हाथ जोड़े हुए बैठ गये और लोगोंमें जो फुसफुसाहट होने लगी थी, वह शान्त हो गयी वर्ष तो याद नहीं, पर बात चौथे दशक की है। पण्डाल में उस समय संपके उपदेशक भैयालालजीका भजन चल रहा था। उसके समाप्त होनेपर स्व० श्री महेन्द्रजीने पण्डितजीका स्वागत करते हुये सबको उनका परिचय कराया कि आप स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके प्रधानाचार्य और दिग० जैन संघ, मथुरासे भी सम्बद्ध हैं। जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् और एक प्रखर प्रभावशाली बनता है। फिर उन्होंने पण्डितजीसे सबको अपनी ज्ञान गंगा स्नान करानेके लिए प्रार्थना की। वाणीके धनी - पण्डितजी महावीरके जयकारोंके बीच खड़े हुए। जैसे ही उन्होंने बोलना शुरु किया, पण्डाल में पिन ड्राप साइलेंस छा गई। वे लगभग एक घण्टा बोले और जन समूह उन्हें बड़ी शान्ति और श्रद्वासे सुनता रहा। एक ही रफ्तार और नपे-तुले शब्द, शैली विशिष्ट और भाषा सरल सुबोध शब्द मानों स्वयं खिल रहे हों । चेहरे पर कोई तनाव नहीं । बीच-बीच में श्रोता जयकार बोलते रहे । व्याख्यान समाप्त होनेपर बड़ी देर तक करतल ध्वनिके साथ जयकारे होते रहे । पण्डितजी और उनका व्याख्यान काफी दिनों २३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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