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________________ काचिद् वसन्तमासे प्रसूनफलगुच्छभारनम्रोद्याने । तन्मौक्तिक-प्रमाणं प्रकीर्णकं वेत्सि चेत काथय । हमने यहाँ प्रथम और अन्तिम पक्तियाँ ही उद्धृत की है। महावीरके गणितसार-संग्रहका प्रभाव लगभग सभी उत्तरकालीन गणितीय ग्रन्थोंपर हैं, यह तो मानना ही पड़ेगा । अपने रचनाकालके डेढ़ सौ वर्षों के भीतर ही इस ग्रन्थकी ख्याति दक्षिण भारतमें बहुत फैल गयी थी, राजामुन्दरीके अधीश राजराजनरेन्द्रके संरक्षणमें इसका तेलगुमें पद्यानुवाद पावलूरि मल्लने किया था, मद्रासके राजकीय पुस्तकालयमें इस अनुवादको प्रतिलिपि विद्यमान है । १९१२में एम० रंगाचार्यने गणितसार-संग्रहका अंग्रेजी अनुवाद (प्रश्नोत्तर सहित) किया जो मद्रास सरकारकी ओरसे प्रकाशित हुआ था । कोलम्बिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्कके डेविड यूजीन स्मिथने इसकी भूमिका लिखी थी। क्षेत्रमिति और क्षेत्रफल भारतवर्ष में रेखागणितकी परम्परा वैदिक श्रोतकालसे चली आ रही है। यज्ञकी चितियों और वेदियोंके निर्माणके सम्बन्धमें, पिछले कतिपय वर्षोंसे मेरो रुचि शल्बग्रन्थोंके प्रति रही। अभी कुछ मास ही हुये, चार शुल्बसूत्रका संग्रह मैने डा० ऊषाज्योतिष्मतीके सहयोगसे प्रकाशित किया-बौधायन-शुल्बसूत्र, आपस्तम्ब-शुल्बसूत्र, कात्यायन-शुल्बसूत्र और भामह-शुल्बसूत्र । बौधायन और आपस्तम्ब-शुल्बसूत्रोंकी प्राचीन कतिपय टीकाएँ भी हम लोग प्रकाशित कर चुके हैं। इन शुल्बसूत्रोंमें प्रसंगवश वृत्त, दीर्घचतुरस्र, समचतुरस्र और प्रउग (त्रिभुजों) की रेखागणित और उनके क्षेत्रफलोंका अच्छा विधान है। शल्बसूत्रकी वैदिक परम्परामें ही तरह-तरहकी इष्टक बनानेकी परम्परा आरम्भ हई और क्षेत्रमिति का भी इसी परम्परामें जन्म हुआ। पाटीगणितोंमें भी एक-दो अध्याय क्षेत्रमितिके रहते आये हैं। श्रीधराचार्यके ग्रन्थ पाटीगणितमें श्रीढी व्यवहारके बाद अन्तिम अध्याय क्षेत्र व्यवहारका है। क्षेत्र जातिभेदसे दश प्रकारके माने गये हैं : तब दश क्षेत्रजातयो भवन्ति, समत्रिभुजं, द्विसमत्रिभुजं, विषमत्रिभुजं, समचतुरस्रं, त्रिसमचतुरस्र, द्विसमचतुरस्रं विषमचतुरस्रं, द्विद्विसमचतुरस्रं, आयतचतुरस्रं, वृत्तं, धनुरिति । इन क्षेत्रोंके सम्बन्धमें अनेक पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग होता है, जैसे भुज, भूमि, मुखं, कोटि, कर्ण, लम्ब, अवधा, हृदयं, परिधि, व्यास, ज्या, शरश्चाप इत्यादि । महावीरने गणितसार-संग्रहमें १६ जातियोंके क्षेत्रोंका उल्लेख किया है : १. तीन जातियोंके त्रिभुज-(क) सम (तीनों भुजा बराबर), द्विसम (दो भुजाएँ बराबर), और विषम (तीनों भुजाएँ अलग-अलग माप की)। २. पाँच जातियोंके चतुरस्र-(क) सम, (ख) द्वि-द्वि-सम (equidichostic), (ग) द्विसम (equibilateral), (घ) त्रिसम (equitritilateral), (ङ) विषम (inequilateral). ३, आठ जातियोंकी घेरेदार आकृतियाँ (वृत्त):-(क) समवृत्त (circle), (ख) अर्धवृत्त, (ग) आयतवृत्त (ellipse), (घ) कम्बुकावृत्त (शंखकी आकृतिका), (ङ) निम्नवृत्त (concave circle), (च) उन्नतवृत्त (convex ciscle), (छ) बहिचक्रवालवृत्त (outlying annulus), (ज) अन्तश्चक्रवाल वृत्त (inlying annulus). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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