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________________ भिन्न है । यथा, ८१९४ में ६४ का भाग दें, तो १२८ बार भाग जावेगा और २ शेषर हेगें अर्थात् १२८. को इस ग्रन्थमें इस प्रकार लिखा है : ६४ १२८ । २ ६४ शून्यका प्रयोग ● का प्रयोग आदि संख्या के रूपमें प्रारम्भ नहीं हुआ, अपितु रिक्त स्थानकी पूर्ति हेतु प्रतीकके रूपमें हुआ था । आधुनिक संकेत लिपिकमें जहाँ ० लिखा जाता है, वहाँ पर प्राचीनकालमें ० संकेत न लिख कर उस स्थानको रिक्त छोड़ दिया जाता था । यथा ४६ का अर्थ होता है छियालिस और ४६ का अर्थ होता था चार सौछह । यदि दोनों अंकोंके मध्य जितना स्थान छोड़ना चाहिये, उससे यदि कम छोड़ा जाता था, तो पाठकगण भ्रममें पड़ जाते थे लेखकका आशय ४६ से है अथवा ४०६ से । इस भ्रमके निवारणार्थ इस संख्याको ४६ न लिखकर ४.६ के रूपमें अंकित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रणाली का आधुनिक रूप ४०६ हो गया । इस प्रकार के प्रयोगका उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों एवं मन्दिरों आदिमें भी लिखा मिलता है । उदाहरणार्थं आगराके होंगकी मण्डी में गोपीनाथ जी के मन्दिरमें एक जैन प्रतिमा है जिसका निर्माण काल सं० १५० ई० है, परन्तु इस प्रतिमा पर इसका निर्माण काल १५०९ न लिखकर १५ ९ लिखा है । वर्गके लिए चिह्न किसी संख्या वर्गके लिए 'व' चिह्न मिलता है परन्तु यह चिह्न 'व' उस संख्याके बादमें लिखा जाता है जिसका वर्ग करना होता है । यथा - 'ज जु' 'अ' एक संख्या है जिसका अर्थ जघन्ययुक्त अनन्त है । यदि इसका वर्ग करेंगे, तो इस प्रकार लिखेंगे? : ज जु अव यह संकेत 'व' वर्ग शब्दका प्रथम अक्षर है । इसी प्रकार धनका संकेत 'ध' और चतुर्थ घात के लिए 'व-व' ( वर्ग वर्ग), पाँचवीं घातके लिये व घघा' ( वर्ग घन घात), छठवीं घातके लिये ध व ( घनवर्ग ), सातवीं घात के लिये व व घघा ( वर्ग वर्ग धन घात) और इसी तरह आगेके लिये भी संकेत दिये ये हैं । वर्गित संवर्गितके लिये चिह्न वर्गित संवर्गित शब्दका तात्पर्य किसी संख्याका उसी संख्याके तुल्य घात वर्गित सम्वर्गित न हुआ जैनग्रन्थोंमें इसके लिये विशेष चिह्न प्रयोग किया गया है। वार वर्गित सम्वर्गित करनेके लिये न ]' लिखा जाता है जिसका आशय न से गितके लिये न] लिखा जाता है । इसका आशय नको वर्गित सम्वर्गित करके सम्वर्गित करना है अर्थात् ( न ९. वही, परि० ६ । २. अर्थसंदृष्टि, पृ० ५६ । Jain Education International ་ । द्वितीय वर्गित सम्व प्राप्त राशिको पुनः वर्गित) है । इस क्रियाको पुनः एक बार करनेसे नका तृतीय वर्गित सम्वर्गित न न - ४०८ - 1 करनेसे है । जैसे न का किसी संख्याको प्रथम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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