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________________ योगदान रहा है और सोनगढ़ (१९४७) एवं ललितपुर (१९५९) अधिवेशनके आप अध्यक्ष रहे हैं। अब आप परिषद्के संरक्षक रहकर उसका मार्गदर्शन करते रहते हैं। आपका आदर्श जीवन विद्वद्वर्ग के लिये अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है। 'जैनसन्देश' के प्रधान सम्पादक होते हुए आप अपनी लेखनीसे निर्भय होकर सामाजिक स्थितिका चित्रण करते हैं। इसीलिये जैन पत्रोंमें जैन सन्देशका स्थान ऊँचा माना जाता है। जैन सिद्धान्त और जैनदर्शनके आप उद्भट विद्वान् हैं। आप वर्तमान अनेक प्रमुख विद्वानोंके विद्यागुरु हैं। अपनी प्राचीन श्रमण संस्कृतिकी गरिमाको न भलाते हए धार्मिक तत्त्वज्ञानके प्रचार-प्रसारका जो कार्य पण्डितजी द्वारा हआ है, वह चिरस्मरणीय रहेगा। आदरणीय पंडितजीका अभिनन्दन कर समाज अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। यह सम्मानकी परम्परा सराहनीय है। इस पावन प्रसंग पर मैं पंडितजीका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए उनकी दीर्घायुको कामना करता हूँ। निर्लोभ वृत्ति पं० गोविन्दराय जैन, झूमरीतिलैया सिद्धान्ताचार्य श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैन समाजके जाने-माने विद्वानोंमेंसे एक अद्वितीय ही हैं। आप प्रखर वक्ता हैं । सुलेखक है। आपने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। अनेकोंका सम्पादन किया है। जैन समाजका ऐसा कोई उत्सव नहीं, जहाँ आपकी उपस्थिति न हो। कोई समाचार पत्र नहीं जिसमें आपके लेख न आते हों। कई वर्षों तक स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीके प्रधानाचार्य पद पर रहकर उसका सफल संचालन क्रिया है । इस ढलती उम्र में भी आपमें बालकों जैसी स्फूर्ति एवं नौजवानों सरीखी तेजस्विता एवं अदम्य उत्साह है। इस ज्ञान मूर्तिके दर्शन करनेको निरन्तर जी चाहता है। झूमरीतलैयामें अनेक बार इन्हें आनेका सुअवसर मिला है । पर निर्लोभ वृत्ति इतनी कि भाड़ेके सिवाय एक पैसा भी अधिक ग्रहण नहीं करते । मैं ऐसे उद्भट विद्वान्की शतायु होनेकी कामना करता हूँ। ये हमारे बीचमें चिरकाल तक रहकर हमें मार्ग दर्शन कराते रहें। पण्डितकी विवशता : एक खरी बात डॉ० कन्छेदीलाल जैन, उपसंपादक, जैन सन्देश, आगरा एक बार राजस्थानके एक शहरमें श्री पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीको बुलाया गया और उनकी उपस्थितिमें कुछ लोगोंने योजना बद्ध ढंगसे विद्वानोंकी बराइयाँ बताते हए भाषण दिये। उसमें एक भाषणका भाव यह था कि विद्वान् लोग जब समाजसे चन्दा लेने आते हैं, तब चन्दा लेते समय दानवीर, उदार, श्रीमान् आदि झूठी उपाधियाँ बनाकर चन्दा मांगकर ले जाते हैं और बादमें दातारोंको पूछते भी नहीं । इतना ही नहीं, जिन संस्थाओंके लिये चन्दा मांगते हैं, उन संस्थाओंके कार्योंको बढ़ा-चढ़ाकर बखान करते हैं । इस प्रकार पण्डित लोग प्रायः झूठ बोलते हैं । अन्तमें पं० कैलाशचन्द्र जीने पांच मिनटका समय बोलनेके लिये मांगा, उन्हें दो मिनटका समय दिया गया। लोगोंने सोचा-ये पण्डितोंके बचावमें क्या बोलेंगे । आदरणीय पण्डित जीने कहा कि कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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