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________________ धर्मनिष्ठ पण्डितजी दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद पं० कैलाशचन्द्रजीसे मेरा परिचय दीर्घकालीन है। इस लम्बे कालमें मेरा आदर उनके प्रति उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है । मैं उनके सौजन्यका यही लक्षण मानता हूँ । मतभेद होते हुए भी हमारे बीच कभी मनोभेद नहीं हुआ। सादा जीवन, नियमित जीवन, कर्तव्यपरायण जीवन, जीवनकी एकरूपता देखना हो, तो पं० कैलाशचन्द्रजीका जीवन देखना चाहिये । जबसे उनका परिचय हुआ है, मैंने उनमें यही पाया है। वे लेखन और प्रवचनमें स्थिर, गम्भीर और व्यवस्थित हैं। उतार-चढ़ावके बिना एक धारासे तर्कपूर्ण लेखन और प्रवचन उनके होते हैं। यही उनकी विद्वत्ताकी निशानी है। पण्डितजीने जिस विषयको भी लिया, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करके हो उसके विषयमें बोला या लिखा । आधुनिक विद्वानोंमें दिगम्बर मान्यताको लेकर लिखनेवाले कई हैं, किन्तु जिस सौम्यभावनासे पण्डितजीकी तर्कपूर्ण लेखनी चलती है, वह उनकी ही अपनी शैली है। उसकी नकल करना अन्यके लिये सम्भव नहीं । अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-अनुवादन पण्डितजीने किया है। यह तभी सम्भव हआ है जबकि उनमें एक निष्ठा है। जब भी उनसे मिलने जायें, तब वे कुछ न कुछ लिखने में ही व्यस्त देखे गये । स्याद्वाद महाविद्यालय और पंडित कैलाशचन्द्रजी एक और अभिन्न ही देखे गये । मानों वे महाविद्यालयके लिये ही जीते हों । संस्थाके प्रति ऐसी कर्तव्यनिष्ठा अन्यत्र दुभ है। सांसारिक जीवन उनका सुखमय इसलिये बना कि उन्होंने जैसी परिस्थिति हई, उसमें जीना सीखा। ऐसा जीना वही जी सकता है जिसमें धर्मनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा पराकाष्ठामें हो । उनका संसार महाविद्यालय और साहित्य साधना ही है। उसी साधनाका साधन गहस्थी है, ऐसा उनके जीवनका निरीक्षण करनेसे निश्चय होता है । पंडितजीका घरेलू जीवन है, यह नहीं कहा जा सकता और यदि है तो स्याद्वाद विद्यालय और साहित्यिक साधना यही है, ऐसा मैंने दीर्घकालके उनके सम्पर्कसे पाया है। वर्षोंसे नियमित रूपसे 'जैन सन्देश' में सम्पादकीय उनका होता है। जैन संदेशके द्वारा उन्होंने अपने विचार दिगाबर समाजको दिये हैं। पण्डित होकर भी सुधारक-समाज और धर्मकी समस्याके विषयमें सुलझे हए विचारक-वे हैं । समाज और राष्ट्र के अनेक प्रकारके प्रश्नोंके विषयमें धर्मदृष्टिसे क्या समाधान हो, इसकी विवेचना पण्डितजी जिस रूपमें करते हैं, वैसा अन्य पण्डितके लिये सरल नहीं। वे सुधारपंथी होकर भी धर्मविमुख नहीं, यह उनकी विशेषता है। प्रायः सुधारक गिने जानेवाले धर्मविमुख हो जाते हैं, किन्तु पण्डितजीने सुधारक होकर भी अपने धर्मको नहीं छोड़ा, यह स्थिति दुर्लभ है। जिन्दगीमें विवादके प्रसंग अनेक आये हैं, किन्तु पण्डितजीने अपने सौजन्यका अतिक्रम किया हो, ऐसा मैंने नहीं जाना । धार्मिक और धर्मपरायण व्यक्तिकी ऐसे विवादके प्रसंगमें ही परीक्ष देखा यह जाता है कि ऐसे अवसरों पर प्रायः सौजन्यका अतिक्रम हो जाता है। पण्डितजी ऐसे अतिक्रमसे बचे हैं, यह उनकी विशेषता है और यही उन्हें महान् बनाती है । जीवनमें ऐसे पुरुषोंके सत्संगका लाभ दुर्लभ है। और मैं अपनेको धन्य मानता हूँ कि मुझे ऐसे महापुरुषके सम्पर्कका अवसर मिला । आशा करता हूँ कि वे शतायु हों और धर्मकी सेवा करते रहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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