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________________ जैनकलाको उन्नतिमें योगदान दिया। इन वंशोंके शासकोंमें सिद्ध राज, जयसिंह, कुमारपाल, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और मारसिंह आदि प्रमुख हैं । जिनसेन, गुणभद्र आदि आचार्य इनके प्रेरक रहे । ग्वालियरगढ़ .. तोमरवंशी डुंगरेन्द्र देवके राज्यकालमें यहाँकी बहुमूल्य विशाल मूर्तियोंका निर्माण स्थानीय समृद्ध भक्तोंके द्वारा कराया था । मूर्तियोंकी चरण-चौकियोंपर निर्माताओंने अपने नामके साथ-साथ अपने नरेशका नाम भी अंकित किया है । मूर्तियाँ विक्रमीय १५-१६वीं शतींकी हैं । डुंगरेन्द्रदेवके सुपुत्र कीर्तिसिंहके राज्यकालमें यहाँकी शेष मूर्तियोंका निर्माण हआ। इन मूर्तियोंमें अरवाही-समूह अपनी विशालतासे तथा दक्षिण पूर्व समूह अपनी अलंकृत कलाद्वारा हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ___ अब दक्षिणकी ओर चलिये । दक्षिणमें श्रवणबेलगोल्ल, हलेबीडु, कार्कल और वेणूर आदि स्थानोंके जिनालय द्राविड और चालुक्य कलाके अनुपम रत्न हैं। हलेबीडुके देवालयके बारेमें स्मिथ महाशयका कहना है कि “ये देवालय धर्मशील मानवजातिके परिश्रमके आश्चर्यजनक साक्षी हैं। इनकी कला कुशलताको देखकर तृप्त नहीं होते।" कलाविशारद एन० सी० मेहताका कहना है कि "बेलूरका भारत विख्यात विष्णुमन्दिर भी मूलमें जैनमन्दिर ही था।" ___ मूडबिद्रीका चन्द्रनाथबसदि, कारकलका चतुर्मुख बसदि और वेणूरका शान्तिनाथ बसदि-ये सब कलाकी दृष्टिसे बहुत ही सुन्दर हैं। इनके अतिरिक्त विजयनगर, भटवल, गेरूसोप्पे, हुबुज, वरंग आदि स्थानोंमें भी अनेक शिलामय प्राचीन जैनदेवालय मौजूद हैं। गफलामन्दिर जैन गुफा मन्दिरों में सबसे प्राचीन उड़ीसाके भुवनेश्वरके पास खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफाएँ हैं । बादामी, मांगी-तुंगी, ऐलोरा आदिकी जैनगुफाएँ बादकी हैं। कारीगरीके लिहाजसे जैनमंदिर बहुत सुन्दर हैं। इनमें पत्थरका बढ़िया शिल्प है। बेलगाँव, धारवाड, उत्तरकन्नड, हासन और बल्लारी जिले में भी बहुतसी जैन गुफाएँ मौजूद हैं । जैनमूर्तिकला इस कलाके सम्बन्धमें इस कलाके विशेषज्ञ एन०सी० मेहता आई०सी० एस० के शब्दोंमें ही सुन लें "नन्दवंशके राज्यकालसे लेकर पन्द्रहवीं शती तक हमारी शिल्पकलाके नमूने मिलते हैं। वे ललित कलायें अपने स्थापत्य और प्रतिमाकलाके इतिहासमें विशेष महत्त्वकी हैं। इनमें भी विशेषकर मूर्ति विधान तो हमारी सभ्यता, धर्मभावना और विचार परम्पराका मूर्तिस्वरूप है। ई० सन्के आदिकी कुषाणराज्यकालकी जो जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं; उनमें और सैकड़ों वर्षों बाद बनी हुई प्रतिमाओंमें बाह्य दृष्टिसे बहुत थोड़ा अन्तर प्रतीत होता है। वस्तुतः जैन ललित कलामें कोई परिवर्तन नहीं होने पाया । अन्तः मूर्ति विधानमें अनेकता नहीं आने पायी। मन्दिरों और मूर्तियोंका विस्तार बहुत हुआ। पर विस्तारके साथ एकता और गम्भीरतामें अन्तर नहीं पड़ा । प्रतिमाके लाक्षणिक अंग लगभग २००० वर्ष तक एक ही रूपमें कायम रहे । केवलीकी खड़ी या आसीन मूर्तियोंमें दीर्घकालके अन्तरमें भी विशेष रूपभेद नहीं होने पाया। जैन तीर्थंकरोंकी मूर्ति विरक्त, शान्ति और प्रसन्न होनी चाहिये। इसमें मनुष्य हृदयकी अस्थायी वासनाओंके लिए स्थान नहीं होता। ये मूर्तियाँ आसन और हस्तमुद्राको छोड़कर शेष सभी बातोंमें प्रायः बौद्ध मतियोंसे मिलती जुलती हैं। तीर्थंकरोंकी सारी प्रतिमाओंके आवासगृह सजाने और शृंगार करने में केवल जैन ही नहीं, बल्कि जैनाश्रित कलाओंने भी कुछ उठा नहीं रखा । मध्यकालीन युगमें जब वाममार्गके कारण या दूसरे -३४३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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