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________________ जी-३२३--यह पाश्र्वनाथ (९८४३९ सेमी०) की खड़ी काले पत्थरकी प्रतिमा है। मल नायक पर सात फण बने हैं, इनमें प्रत्येक पर फूल बना है। प्रतिमा दिगम्बर है। पीठिका लेखके नीचे दो सर्प एक-दूसरेके सामने फण उठाये बनाये गये हैं । सर्पो एवं चँवरधारियोंका रेखांकन है । लेख इसप्रकार है : सम्वत् १२५३ आषाढ़ सुदि ८ रवी नावरान्वये साधु जाल्हसंगिनीगल्हा नित्यं प्रणमति । इन लेखोंका नावरान्वये शब्द महत्त्वपूर्ण है। इसके विषयमें डा० ज्योतिप्रसाद जैनका मत है कि नावरान्वये शब्दका मूल एवं शुद्ध रूप नरवरान्वये प्रतीत होता है। चूंकि यह शब्द उन श्रावकोंके लिये विशेष रूपमें प्रयुक्त हुआ है जिन्होने उक्त प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करायी थी। इससे यह अग्रोतकान्वये, लम्बकांचजकान्वयादिकी भाँति किसी जाति, गोत्र या अन्वयका सूचक प्रतीत होता है। सम्भावना यह है कि इसे नरवरान्वये वामकी जैन धर्मावलम्बी वैश्य जातिका निवास इसी क्षेत्रमें स्थित प्राचीन नरवरगढसे था जो कि जनश्रतिके अनुसार प्रसिद्ध राजा नलकी राजधानी थी। जी-३०६-यह पद्मासनस्थ जिन (९२ x ५३ सेमी०) की सफेद संगमरमरकी मूर्ति है। इसके लेख अस्पष्ट हैं। जी-३०९-यह ध्यानमग्न पद्मासनासीन (६६ ४ ५२ सेमी०) किसी जिनकी प्रतिमा है जिसे दुग्ध-से श्वेत प्रस्तरसे बनाया गया है। पादचौकीको तीन बड़े-बड़े फूलोंसे सँवारा गया है । मूर्तिका नाक-नक्शा तीखा है । यह लेख रहित मूर्ति है । जी-३०८-यह आसन चौकी (१ मी०x२२ सेमी०) है। इसका प्रस्तर अति हल्का मटीले जैसे रंगका है। इसे संग्रहालय पंजीमें बुद्ध प्रतिमाका आधार लिखा गया था जिसका कारण सम्भवतया यह था कि इसके बीच में दो हिरण बने थे। किन्तु यह शान्तिनाथकी चरण चौकी है क्योंकि बाँयी ओर यक्षी तथा दाँयी तरफ यक्ष बैठे हैं। यक्षी विलासासनमें बैठी है। चतुर्भुजी यक्षीके हाथोंमें कमल, कलश, वरद एवं पुस्तक है। यह अनन्तमती यक्षीका अंकन कहा जा सकता है। नीचे लोका या शोभा खुदा है। यक्ष दो भुजी है । यह नेवला एवं श्रीफल पकड़े बैठा है । देवनागरी लिपिमें इसका लेख यहाँ दृष्टव्य है : रूपसयरविकत्रसातिसितृतसुहितस्त्र विसीस्परिस सहिकयरिकारित । मुखा सम्वत् १३२४ सावन शनौ-। इससे इतना सुस्पष्ट हो जाता है कि सम्वत् १३२४ को शान्तिनाथकी मूर्तिको प्रतिष्ठित किया गया था, किन्तु आज इस मूर्तिका आधारमात्र ही शेष है। मूल मूर्ति भव्य रही होगी, ऐसा पाठिकाके आकार एवं आकृतिको देखनसे प्रतीत होता है। जी-३०९-यह काले पत्थरसे गढ़ी तथा दो हिरणोंके चिह्नोंसे युक्त शान्तिनाथ (६२ x १५ सेमी०) की प्रतिमा भी बड़ी ही लुभानी है। यहाँ इन्हें वस्त्र रहित खड़े दिखलाया गया है। ऊपर केवल वृक्ष विछत्र, हाथीपर सवार विद्याधर एवं सबसे ऊपर देव दुन्दभिवादक बना है। नीचे यक्ष न बनाकर पीछीधारी मुनि बने हैं। जी-३१०-यह पार्श्वनाथ (४२ ४ २५ सेमी.) की अति हल्के मटीले रंगकी सप्तफणोंके नीचे विराजित पद्मासीन ध्यानस्थ भावपूर्ण प्रतिमा है । यहाँ चरण चौकीपर न तो सर्प बने हैं और न ही लेख खदा है किन्तु खिले कमलका सुन्दर अंकन है। सिंह पीछेको मह घुमाये सिंहासनका वाहन कर रहे हैं । बाँयी तरफ पुरुष अर्द्ध पर्यकासनमें बैठा है । दाँयी तरफ नमस्कार मुद्रामें उपासक तथा पीछेकी आकृतिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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