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________________ अमर विभूतियों-महावीर और बुद्ध-का भारतीय रंगमंच पर आविर्भाव हुआ, और यह स्वाभाविक ही था कि पुरोहितवादसे त्रस्त जनसाधारण इनकी ओर आकर्षित हों और इनके बताये मार्गों पर उत्साहपूर्वक चलें। इस मौकसे लाभ उठाकर महावीरने कूछ संशोधनोंके साथ पावके धर्मको लोगोंके समक्ष ल्पकालमें ही अपने 'समानता एवं अहिंसाके सिद्धान्तों के कारण काफी लोकप्रिय हो चला। नके उपदेश इतने प्रभावोत्पादक थे कि ब्राह्मणोंका एक वर्ग भी प्रव्रजित होकर उनका अनुयायी बन गया । इन ब्राह्मणोंमें अधिकांशतः बुद्धिजीवी थे जिनके अथक प्रयाससे यह और भी आगे बढ़ा। महावीरकी दृष्टि में ब्राह्मण हो अथवा शूद्र , श्रेष्ठ हो अथवा नीच-सभी बराबर थे । वह ब्राह्मणको 'जन्मना' नहीं, 'कर्मणा' मान्यता देते थे और उनके अनुसार समाजके सबसे निम्न वर्ग में जन्म लेकर भी एक चांडाल अपनी योग्यतासे समाजमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता था। ब्राह्मणधर्मकी भाँति ही जैन - पुनर्जन्मके अनन्त चक्रोंसे मुक्ति पानेके सिद्धान्तोंमें विश्वास करता है।' किन्तु, इसकी प्राप्तिके लिए ब्राह्मणों द्वारा बताये गये मार्गोंको वह नहीं मानता। इसका लक्ष्य निर्वाणप्राप्ति है, न कि सार्वभौम आत्मासे तादात्म्य स्थापित करना। दोनोंमें अन्तर बहुत कम है जो जातिगत विभेदके कारण है। महावीरने न तो उनका विरोध किया और न ही उनकी सभी वस्तुओंको माना। उनके अनुसार यद्यपि पूर्व जन्मके कृत्योंसे ही मनुष्यका पुनर्जन्म-ऊंची अथवा नीची जाति-निर्धारित होती है, फिर भी इस जन्ममें पवित्र एवं धार्मिक आचरण द्वारा कोई भी व्यक्ति निर्वाण अथवा मोक्षके उच्च शिखर तक पहुँच सकता है। तात्पर्य यह कि तीर्थंकर महावीरके लिए जातिका कोई महत्त्व नहीं था, वह तो चांडाल में भी देवात्माको खोजते थे। [३] संसारमें सभी दुःख और विपत्तिसे घिरे हैं, उनसे मक्तिकी कतई सम्भावना नहीं। इसीलिए उन्होंने समस्त प्राणियोंके उत्थानका मार्ग बताया। जाति-व्यवस्था तो मात्र परिस्थितिगत है और कोई भी धार्मिक पुरुष उचित मार्ग पर चलकर इन बन्धनोंको आसानीसे तोड़ सकता है। मुक्ति किसी वर्ग-विशेष अथवा जाति-विशेषकी धरोहर नहीं है। महावीरने मनुष्य और मनुष्य तथा नर और नारीके बीच जरा भी अन्तर नहीं माना । जैनियोंका ऐसा विश्वास रहा है कि 'जिन' क्षत्रिय वर्ग अथवा किसी उदात्त परिवार में ही पैदा होते हैं । दूसरे शब्दोंमें, महावीरने यग-युगान्तरसे चली आ रही जाति-व्यवस्था पर परोक्ष रूपसे प्रहार कर भी अपरोक्ष रूपसे उसे मान्यता दी जिसके फलस्वरूप ब्राह्मण-दार्शनिकोंसे उनकी ऐसी भिड़न्त नहीं हुई जो बौद्ध दार्शनिकोंसे और, यही कारण है कि जैनमत आज भी अपने पूर्व रूपमे जीवित है जबकि हिन्दूदर्शनने १२वीं सदी तक आते-आते बौद्धमतको पूर्णतया आत्मसात कर लिया। यह उल्लेखनीय है कि जैनधर्मकी रक्षा बहुत कुछ जैनियोंके अनुशासित जीवन एवं सिद्धान्तोंका तत्परतापूर्वक पालनके कारण हई । ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्व भद्रबाहके समय जैनसंघमें जो विभाजन हुआ, उसके बादसे लेकर अब तक उनके प्रायः सभी मूल सिद्धान्त अपरिवर्तित रहे और आज भी जैन सम्पदायके अनुयायियोंका धार्मिक जीवन दो हजार वर्ष पूर्व जैसा ही है। किसी भी प्रकारका परिवर्तन स्वीकार न करना जैनियोंकी एक खास विशेषता रही है। बहतसे तुफान आये और गुजर गये लेकिन यह विशाल वटवृक्ष अपने स्थान पर अडिग रहा । महावीर एक अद्वितीय व्यक्तित्व थे जो मनुष्यकी आत्मपूर्णताके लक्ष्य पर १. सेकेड बुक्स आफ दी ट्रस्ट, भाग ३२, पृ० २१३ । २. बी० सी० लॉ०, महावीर, पृ० ४४ । - २८३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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