SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेखसार कन्नड और जैनागम साहित्य प्रो० एम-डो० वसन्तराज, मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर जब भी कभी जैनोंके कन्नड़ भाषाके विकासमें योगदानकी चर्चा होती है, तब प्रायः इसे काव्य या कविताके क्षेत्रमें प्रधानतः सीमित मान लिया जाता है। लेकिन सत्य यह है कि कन्नड़ भाषाके लिए जैनोंका योगदान संस्कृत और प्राकृत भाषाके समकक्ष ही माना गया है । संस्कृत और प्राकृतके समान कन्नड़ भाषाको भी जैनागम साहित्यके विकासके लिए प्रयुक्त किया गया है। षटखंडागम और उसकी टीकाओंके लिए कन्नड़के उपयोगसे यह भलीभाँति ध्वनित होता है कि कन्नड़में कोई-न-कोई विशेषता है जिससे इसका उपयोग आगम साहित्य निर्माणके लिए किया गया । अंगश्रुतके सारभूत षट्खंडागमके रचयिता पुष्पदन्ताचार्य कन्नड़ वासी ही थे । यहाँके वनवासी स्थानको हम श्रुत प्रवर्तनका अतिशय क्षेत्र मान सकते हैं । इसपर कुन्दकुन्द, श्यामकुन्द, तुबुलुरु आचार्यने इसपर टीकाएँ लिखी हैं । तुम्बुलुरु आचार्यने षट्खंडागमके पाँच खण्डों पर ८४००० गाथा-प्रमाण चूडामणि नामक कन्नड़ टीका लिखी है। इसके छठे खण्डपर इन्होंने पंचिका कोटिकी टीका भी सम्भवतः कन्नड़में लिखी। यह समन्तभद्रकी पूर्ववर्ती टीका है जो सम्भवतः पाँचवीं सदीमें लिखी गयी थी। इसके अतिरिक्त भी अन्य आगम टीकाएँ कन्नड़में लिखी गईं, इस विषयमें अनुसंधानकी आवश्यकता है। साहित्यके क्षेत्रमें भी पंप, रन्न, पोन्न, जन्न, अभिनव पंप-नागचन्द्रने कन्नड़ भाषामें अनेक काव्य लिखे हैं। इन कवियोंने पौराणिक कथाओंके माध्यमसे जननीतिशास्त्र और अध्यात्मविद्याका भी वर्णन किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन और उनके उत्तराधिकारियोंके युगमें कर्नाटकमें संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंमें साहित्य लिखा गया। पर कदम्बोंके युगमें संस्कृत लेखनकी प्रधानता रहो। गुप्त साम्राज्यके प्राधान्यसे संस्कृतकी यह स्थिति दशवीं शताब्दीके पूर्व तक कर्नाटकमें बनी रही। इसी कारण इस युगका कोई महत्त्वपूर्ण कन्नड़ साहित्य हमें उपलब्ध नहीं होता। दसवीं शताब्दी कन्नड़ साहित्यके निर्माणका स्वर्णयुग कही जा सकती है। इस समयके रचित अनेक जनागम कन्नड़ ग्रन्थ भंडारोंमें प्राप्त होते हैं, जिनमें कुछ मौलिक हैं और कुछ टीका ग्रन्थ हैं। इस दिशामें श्रावकाचारोंपर लिखित ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । 'सुविचारचरित' इसी कोटिका एक उत्तम ग्रन्थ है । इसी प्रकार कर्म, तत्त्व, लोक आदि अनेक सैद्धान्तिक विषयोंपर भी कन्नड़ ग्रन्थ लिखे गये। कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंपर कन्नड़में लिखे अनेक टीका ग्रन्थ भी भण्डारोंमें पाये जाते हैं । यदि इनका प्रकाशन सम्भव न हो, तो भी वर्णनात्मक ग्रन्थ सूचीका प्रकाशन अत्यन्त आवश्यक है । कन्नड़में जैनागम और साहित्य लेखनकी प्रक्रिया आज भी चाल है । रत्नकरण्डश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, अनुयोगव्यवच्छेदिका, समयसार तथा अन्य संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थोंके कन्नड़ अनुवाद किये गये हैं। इस कोटिकी हिन्दी भाषाकी पुस्तकें भी कन्नड़ में अनूदित हुई हैं, जिनमें कैलासचन्द्र शास्त्रीकी जैनधर्म नामक पुस्तक प्रमुख है। उत्तर और दक्षिणके मध्य सांस्कृतिक सेतुबन्धकी दृढ़ताके लिए यह आवश्यक है कि कन्नड़ के ग्रन्थोंका भी हिन्दी भाषामें अनुवाद किया जाए। -271 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy