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________________ तथा उसे सर्वाङ्गपूर्ण बनानेका स्तुत्य कार्य किया। लौकिक संस्कृतके नियमोंको संक्षेप, सरलता और सम्पूर्णताकी दृष्टिसे बतानेके लिए उन्होंने इसकी रचना की थी। सरलताकी दृष्टिसे शाकटायनने अपने व्याकरणमें पाणिनीय अष्टाध्यायीके दो सूत्रोंसे लेकर नौ सूत्रों तकके स्थान पर केवल एक सूत्रकी रचना बड़ी ही कुशलतासे कर दी है । उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है : १. दो सूत्रोंके स्थानपर एक सूत्र । यथापाणिनि-'वृद्धस्य च पूजायाम्' (४।१।१६६), 'यूनश्च कुत्सायाम्' (४।१।१६७) शाकटायन-'युवं वृद्धं कुत्सार्थे' (१।१।१६) पाणिनि-'पुरोऽव्ययम्' (१।४।६७), 'अस्तं च' (१।४।६८) शाकटायन-'अस्तं पुरोऽव्ययम्' (१।१।२९) पाणिनि-'षष्ठी स्थानेयोगा' (१।१।४९), 'अलोऽन्त्यस्य' (१।१।५२) शाकटायन-'षष्ट्याः स्थानेऽन्ते लः' (१।१।४७) पाणिनि-'ढो ढे लोपः' (८।३।१३), 'रो रि' (८।३।१४) शाकटायन-'द्रो ढि' (१।१।१३१) २. दो सूत्रोंके स्थान पर दो मिश्रित सूत्र । यथापाणिनि-'पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन' (२।२।११), ___ 'तेन च पूजायाम्' (२।२।१२) शाकटायन-'तृप्तार्थाव्ययनिर्धार्यडच्छवानश्मतिपूजाधारक्तः' (२।१।५०) 'गुणैरस्वस्थैः' (२।१।५१) पाणिनि- 'घरूपकल्पचेल वगोत्रमतहतेषु ङ्योऽनेकाचो ह्रस्वः' (६।३।४३), 'उगितश्च' (६।३।४५) शाकटायन-रूपकल्पङ्गोत्रमतहतचेलड्ब्रु वे ह्रस्वश्च वोगितः' (२।२।५२), 'ङ्योऽनेकाचः' (२।२।५३) ३. तीन सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'मनः' (४।१।११), अनो बहुव्रीहेः' (४।१।१२), 'डाबुभाभ्यामन्यरस्याम्' (४।१।१३) शाकटायन-'मन्नन्बहुव्रीहेन्न च' (१।३।१२) पाणिनि-'सम्बोधने च' (२।३।४७), 'सामन्त्रितम्' (२।३।४८), एकवचनं सम्बुद्धिः' (२।३।४९) शाकटायन-'आमन्त्र्ये' (१।३।९९) पाणिनि-'नदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः' (५।४।११०), 'झयः (५।४।१११), 'गिरेश्च सेनकस्य' (५।४।११२) शाकटायन-'गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीजयः' (२।१।१५५) - २५२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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