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________________ देवतत्त्वके लिये जब हमारी भावना जाग्रत हो, तभी भक्तिको विपुल सूख समझाना चाहिये । भक्तिका सत्रार्थ है-भागधेय प्राप्त करना।' हिन्दू, बौद्ध, जैन-सभी धर्मोंने भक्ति पदको स्वीकार किया है । यह एक प्राचीन साधना मार्ग रहा है। भक्तिसे मनके विकार नष्ट होते हैं और उदात्त भावोंकी सृष्टिके साथ इंसान एक ऐसे पुनीत वातावरणमें अपने आपको परिवेष्टित करता है कि उसे समस्त अशभ संकल्प-विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। वैष्णव सन्तोंने इस भक्तिमार्गको राजपथके रूपमें स्वीकार किया है। भक्तिका व्युत्पत्त्यर्थ 'भक्ति' शब्द ‘भज' धातुमें स्त्रीलिंग क्तिन् प्रत्यय जोड़कर बनता है । ऐसा अभिघान राजेन्द्र कोशमें माना गया है । मुनि पाणिनिने 'स्त्रियां क्तिन्' से धातुओंमें स्त्रीवाची क्तिन् प्रत्यय लगानेका विधान किया है। क्तिन् प्रत्यय भाव अर्थमें होता है किन्तु वैयाकरणोंके यहाँ कृदन्तीय प्रत्ययोंके अर्थ परिवर्तन एक प्रक्रियाके अङ्ग हैं । अतः वहीं क्तिन् प्रत्यय अर्थान्तरमें भी हो सकता है। इस प्रकार भक्ति शब्दकी भजनं भक्तिः, भज्यते अनया इति भक्तिः, भजन्ति अनया इति भक्तिः, इत्यादि व्युत्पत्तियां की जा सकती हैं। 'भज सेवायम' से 'भज' धात सेवा अर्थमें आती है। पाइअ-सह-महण्णवमें भी भक्तिको सेवा कहा है। राजेन्द्रकोशमें सेवायां भक्तिविनयः सेवा कहकर भक्तिको सेवा तो माना ही है, सेवाका अर्थ भी विनय किया है। विनयके चार भेद हैं जिनमें उपचार विनय का सेवासे मुख्य सम्बन्ध है। आचार्य पूज्यपादने आचार्योंके पीछे-पीछे चलने, सामने आने पर खड़े हो जाने, अञ्जलिबद्ध होकर सामने नमस्कार करने आदि को उपचार विनय कहा है। निशीथर्णिमें भी 'अभट्टाणदण्डगहणपायपुंछणासणप्पदाणगहणादीहि सेवा जा सा भक्ति' लिखा है । आचार्य वसुनन्दीने उपचारविनयके भी तीन भेद किये हैं जिनमें कायिक उपचार विनयका सेवासे सीधा सम्बन्ध है । उन्होंने लिखा है कि साधुओंकी वन्दना करना, देखते ही उठकर खड़े हो जाना, अञ्जलि जोड़ना, आसन देना, पीछे-पीछे चलना, शरीरके अनुकूल मर्दन करना और संस्तर आदि करना कायिक विनय है । आचार्य शान्तिसूरिने एक प्राचीन गाथाकी व्याख्या करते हुए कहा है कि सुर और सुरपति भक्तिवशाद् अजलिबद्ध होकर भगवान् महावीरको नमस्कार करते हैं । वह भी सेवा है। आचार्य श्रुतसागर सूरिने भी आचार्य, उपाध्याय आदिको देखकर खड़े होने, नमस्कार करने, परोक्षमें परोक्ष विनय करने और गुणोंका स्मरण करनेको भगवान्की सेवा कहा है । ____ व्यापक अर्थमें भक्तिके जो भिन्न-भिन्न अर्थ प्रतिपादित किये गये हैं, वे सब इसकी व्यापकताको सिद्ध करते हैं। जिस प्रकार चातक श्यामले मेघोंके प्रति आकृष्ट होता हुआ स्वातिबूंदके लिये लालायित रहता है, चकोर चन्द्रमाकी शीतल किरणोंका पान करने हेतु उत्सुक रहता है एवं मयूर पावसकालीन जलदोंको देखकर विमुग्ध हो उठता है, उसी प्रकारको तितिक्षा भक्तके मानसमें आराध्यकी शान्त मुद्रा देखनेके लिये प्रतिक्षण उमड़ती रहती है। यही आतुरता, यही विह्वलता और वही तत्परता भक्तिकी आधारशिला है। आत्मसमर्पण, एकाग्रता, निश्चलता, तीव्र उत्कण्ठा एवं दृढ़ श्रद्धा ही भक्तिको पल्लवित एवं पुष्पित करती है । वस्तुतः अपने आराध्यके प्रति अनुराग ही सच्ची भक्ति है। १. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, जैन भक्ति काव्यकी पृष्ठभूमि, प्राक्कथन पृ० ३ । २. डॉ० प्रेमसागर जैन, जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृ० १-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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