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________________ मरट्र एवं धृष्ट सौराष्ट्रने भी उक्त महासंघका पूरा पूरा साथ दिया था और इनकी सम्मिलित शक्तिने ही यवनराजको बार-बार पीछे हटा दिया था। इतने देशोंके नामोंके एक साथ उल्लेख अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। यवराज सुबुक्तगीन एवं उसके उत्तराधिकारियों तथा मुहम्मद गोरीके आक्रमणोंसे जब धन, जन, सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रतिष्ठाकी हामि एवं देवालयोंका विनाश किया जा रहा था, तब प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा एवं समान स्वार्थों को ध्यानमें रखते हुए पड़ोसी एवं सुदूरवर्ती राज्योंने उक्त यवन राजाओंके आक्रमणोंके प्रतिरोधमें सम्भवतः तोमरवंशी राजा अनंगपाल ततीयके साथ अथवा अपना कोई स्वतन्त्र महासंघ बनाया होगा। कविने सम्भवतः उसीकी चर्चा पार्श्व एवं यवनराजके माध्यमसे प्रस्तुत की है। यथार्थतः यह बड़ा रोचक एवं गम्भीर शोधका विषय है। शोधकर्ताओं एवं इतिहासकारोंको इस दिशामें तुलनात्मक गम्भीर अनुसन्धान करनेकी आवश्यकता है। - कविने प्रसंगवश हरयाणा, दिल्ली, कुशस्थल, कालिन्दी, वाराणसी एवं मगध आदिके भी सुन्दर वर्णन किये है तथा छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों (कर्वट, खेड, मडम्ब, आराम, द्रोणमुख, संवाहन, गाम, पट्टन, पुर, नगर आदि) के भी उल्लेख किये हैं। समकालीन दिल्लीका आँखों देखा हाल इस कविने जितने प्रामाणिक ढंगसे किया है, इतिहासकी दृष्टिसे वह अनूठा है। पूर्वोक्त वर्णनों एवं इन उल्लेखोंको देखकर यह स्पष्ट है कि कविको मध्यकालीन भारतका आर्थिक, व्यापारिक, प्राकृतिक, मानवीय एवं राजनीतिक भूगोलका अच्छा ज्ञान था। कवि द्वारा प्रस्तुत सन्दर्भ सामग्री निश्चय ही तत्कालीन प्रामाणिक इतिहास तैयार करने में सहायक सिद्ध हो सकती है । रस-संयोजन पासणाहचरिउका अंगी रस शान्त है, किन्तु शृंगार, वीर और रौद्ररसोंका भी उसमें सम्यक परिपाक हुआ है। कविने युद्धके लिए प्रस्थान, संग्राममें चमचमाती तलवारें, लड़ते हुए वीरोंकी हुंकारों एवं योद्धाओंके शौर्य-वीर्य आदिके वर्णनोंमें वीर-रसकी सुन्दर उद्भावना की है। पार्श्वकुमारको उसके पिता अश्वसेन जब युद्धकी भयंकरता समझाकर उन्हें युद्ध में न जानेकी सलाह देते हैं, तब पार्श्व अत्यन्त वीरतापूर्ण उत्तर देते हैं (पा० च०, ३।१२) । राजा अरविन्द कमठके दुराचारसे खिन्न होकर क्रोधातुर हो जाता है और उसे नाना प्रकारके दुर्वचनों द्वारा अपमानित करता है, तब राजाके रौद्र रूपका कविने चित्रण कर रौद्र-रसकी अच्छी उद्भावना की है। इसी प्रकार पावके वैराग्यके समय परिवार एवं पुरवासियोंके वियोगके अवसरपर करुण रस तथा जब पार्श्व वनमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं, उस सन्दर्भमें शान्त-रसका सुन्दर परिपाक हुआ है। श्रृंगार रसके भी जहाँ-तहाँ उदाहरण मिलते हैं। कविने नगर, वन, पर्वत, नर एवं नारियोंके सौन्दर्यका मोहक चित्रण किया है, किन्तु यह श्रृंगार रतिभावको पुष्ट न कर विरक्तिको ही पुष्ट करता है। माता वामादेवीके सौन्दर्यका वर्णन इसका उदाहरण है। समकालीन लोक-शब्दावली पासणाहचरिउ एक प्रौढ़ अपभ्रंश रचना है, किन्तु उसमें कविने जहाँ-तहाँ अपभ्रंशके साथ-साथ तत्कालीन लोक-प्रचलित कुछ ऐसे शब्दोंके भी प्रयोग किये हैं जो आधुनिक बोलियोंके समकक्ष हैं। इनमेंसे कुछ शब्द तो आज भी हूबहू उसी रूपमें प्रचलित हैं। इस प्रकारकी शब्दावलीसे कविकी कवितामें प्राणवत्ता, वर्णन प्रसंगोंमें रोचकता एवं गतिशीलता आई है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत हैं : वार-वार -२३६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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