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________________ अथवा विश्वस्त गुप्तचरों द्वारा सुने गये यथार्थ वर्णन जैसे प्रतीत होते हैं । उसने उन युद्धोंमें प्रयुक्त जिन शस्त्रास्त्रोंकी चर्चाकी है, वे पौराणिक, ऐन्द्रजालिक अथवा दैवी नहीं, अपितु खुरपा. कृपाण, तलवार, धनुषबाण जैसे वे ही अस्त्र-शस्त्र हैं जो कविके समयमें लोक प्रचलित थे। आज भी वे हरयाणा एवं दिल्ली प्रदेशोंमें उपलब्ध हैं और उन्हीं नामोंसे जाने जाते हैं। ये युद्ध इतने भयङ्कर थे कि लाखों-लाखों विधवा नारियों एवं अनाथ बच्चोंके करुण क्रन्दनको सुनकर संवेदनशील कविको लिखना पड़ा था : दुक्कर होई रणंगणु । रिउ वाणावलि पिहिय जहंगण । संगरणामु जि होई भयंकरु । दुरय-दुरय रह सुहड खयंकरु ।। पा० २।१४।३,५ कुछ मनोवैज्ञानिक वर्णन एवं नवीन मौलिक उपमाएँ कवि श्रीधर भावोंके अश्रुत चितेरे हैं । यात्रा-मार्गोंमें चलने वाले चाहे सैनिक हो अथवा अटवियोंमें उछल-कूद करने वाले बन्दर, वन विहारोंमें क्रीड़ाएँ करने वाले प्रेमी-प्रेमिकाएँ हों अथवा आश्रमोंमें तपस्या करने वाले तापस, राज दरबारोंके सूर सामन्त हों अथवा साधारण प्रजाजन, उन सभीके मनोवैज्ञानिक वर्णनोंमें कविकी लेखनीने अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस प्रकारके वर्णनोंमें कविकी भाषा भावानुगामिनी एवं विविध रस तथा अलंकार उनका अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं । पार्श्व प्रभु विहार करते हुए तथा कर्वट, खेड, मंडव आदि पार करते हुए जब एक भयानक अटवीमें पहुँचते हैं, तब वहाँ उन्हे मदोन्मत्त गजाधिप, द्रुतगामी हरिण, भयानक सिंह, घुरघुराते हुए मार्जार एवं उछल-कूद करते हुए लंगूरोंके झुण्ड दिखाई पड़ते हैं । इस प्रसङ्गमें कवि द्वारा प्रस्तुत लंगूरोंका वर्णन बड़ा स्वाभाविक बन पड़ा है ( ७।१४।४-१६) । अन्य वर्णन प्रसङ्गोंमें भी कविका कवित्व चमत्कारपूर्ण बन पड़ता है। इनमें कल्पनाओंकी उर्वरता, अलङ्कारकी छटा एवं रसोंके अमृतमय प्रवाह दर्शनीय हैं। इस प्रकारके वर्णनोंमें ऋतु-वर्णन, अटवी, वर्णन, सन्ध्या, रात्रि एवं प्रभात-वर्णन तथा आश्रम-वर्णन आदि प्रमुख हैं। कविकी दृष्टि में सन्ध्या किसीके जीवन में हर्ष उत्पन्न करती है, तो किसीके जीवनमें विषाद । वस्तुतः वह हर्ष एवं विषादका विचित्र सङ्गमकाल है । जहाँ कामीजनों, चोरों, उल्लुओं एवं राक्षसोंके लिए वह श्रेष्ठ वरदान है, वहीं नलिनीदलके लिए घोर विषादका काल । वह उसी प्रकार मुरझा जाता है जिस प्रकार इष्टजनके वियोगमें बन्धुबान्धवगण । सूर्यके डूबते ही उसकी समस्त किरणें अस्ताचलमें तिरोहित हो गई हैं । इस प्रसङ्गमें कवि उत्प्रेक्षा करते हुये कहता है कि विपत्तिकालमें अपने कर्मोंको छोड़कर और कौन किसका साथ दे सकता है ? सूर्यके अस्त होते ही अस्ताचल पर लालिमा छा रही है जो ऐसी प्रतीत हो रही है मानो अन्धकारके गुपठा ललाहपर किसीने सिन्दूरका तिलक ही जड़ दिया हो। अन्धकारके गुफा ललाटपर किसीने सिन्दूरका तिलक जड़ ही दिया हो । यह कवि-कल्पना सचमुच ही अद्भुत एवं नवीन है। कविका रात्रि-वर्णन प्रसङ्ग भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं है। वह कहता है कि समस्त संसार घोर अन्धकारकी गहराईमें डूबने लगा है । इस कारण विलासिनियोंके कपोल रक्ताभ हो उठे हैं तथा उनके नीवीबन्ध शिथिल होने लगे हैं। महाकवि सूर एवं जायसी पर प्रभाव कवि श्रीधरने शिशुकी लीलाओंका भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । उनकी वाल एवं किशोर-लीलाओं तथा उनके असाधारण सौन्दर्य एवं अङ्ग-प्रत्यङ्गकी भाव-भङ्गिमाओंके चित्रणोंमें कविकी कविता मानो -२३२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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