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________________ करनेकी अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि “हे साहू, संसारमें दुर्जनोंकी कमी नहीं। वे कूट कपटको ही विद्वत्ता मानते हैं, सज्जनोंसे ईर्ष्या एवं विद्वष रखते हैं तथा उनके सद्गुणोंको असह मानकर उनसे दुर्व्यवहार करते हैं। वे उन्हें कभी तो मारते हैं और कभी टेढ़ी-मेढ़ी, भौंहें दिखाते हैं अथवा कभी उनका हाथ, पैर अथवा सिर ही तोड़ देते हैं। मैं तो ठहरा सीधा-सादा, सरल स्वभावी, अतः मैं किसीके घर जाकर उससे नहीं मिलना चाहता।" . किन्तु अल्हण साहूके पूर्ण विश्वास दिलाने एवं बार-बार आग्रह करनेपर कवि साहू नट्टलके घर पहुँचा, तो वह उसके मधुर व्यवहारसे बड़ा सन्तुष्ट हुआ। नट्टलने प्रमुदित होकर कविको स्वयं ही आसनपर बिठाया और सम्मान सूचक ताम्बूल प्रदान किया। उस समय नल एवं श्रीधर-दोनोंके मनमें एक साथ एक ही जैसी भावना उदित हुई । वे परस्परमें सोचने लगे, "जं पुन्व जन्मि पविरइउ किंपि । इह विहवसरेण परिणवइ तंपि ॥" अर्थात् हमने पूर्वभवमें ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था जिसका आज साक्षात् ही यह मधुर फल हमें मिल रहा है। साहू नट्ट लके द्वारा आगमन प्रयोजन पूछे जाने पर कविने उत्तर में कहा "मैं अल्हण साह के अनुरोधसे आपके पास आया हूँ। उन्होंने मुझसे आपके गुणोंकी चर्चा की है और बताया है कि आपने एक 'आदिनाथ मन्दिर'का निर्माण कराकर उसपर 'पचरंगे' झण्डेको फहराया है । आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिरकी प्रतिष्ठा कराई है, उसी प्रकार आप एक पार्श्वनाथचरित' की रचना कराकर उसे भी प्रतिष्ठित कराइये जिससे आपको पूर्ण सुख-समृद्धि प्राप्त हो सके तथा जो कालान्तरमें मोक्षप्राप्तिका भी कारण बन सके । इसके साथ-साथ स्वामीकी एक मूर्ति भी अपने पिताके नामसे उस मन्दिरमें प्रतिष्ठित करा दीजिये।" कविके कथनको सुनकर साहू नट्टलने तत्काल ही अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। प्रचलित इतिहास सम्बन्धी भ्रांन्तियोंके निराकरणमें पासणाहचरिउका योगदान कुछ विद्वानोंने 'पासणाहचरिउके प्रमाण देते हुये नट्टल साहू द्वारा दिल्लीमें पार्श्वनाथ मन्दिरके निर्माण कराए जानेका उल्लेख किया है और विद्वज्जगतमें अब लगभग यही धारणा बनती जा रही है कि साह नदलने दिल्लीमें पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया था जबकि वस्तुस्थिति सर्वथा उससे भिन्न है । यथार्थतः नट्टलने दिल्ली में पार्श्वनाथ मन्दिर नहीं, आदिनाथ जिन मन्दिरका निर्माण कराया था जैसा कि आद्य प्रशस्तिमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है (१।९।१-२) । उक्त वार्तालाप कवि श्रीधर एवं नट्टल साहू के बीचका है। उस कथनमें 'पार्श्वनाथचरित्र' नामक ग्रन्थके निर्माण एवं उसके प्रतिष्ठित किए जानेकी चर्चा तो अवश्य आई है किन्तु पार्श्वनाथ मन्दिरके निर्माणकी कोई चर्चा नहीं और कुतुबुद्दीन ऐबकने नट्टल साहू द्वारा निर्मित जिस विशाल जैन मन्दिरको ध्वस्त करके उसपर 'कुन्वत-उल-इस्लाम' नामकी मस्जिदका निर्माण कराया था,२ वह मन्दिर निश्चित ही पार्श्वनाथका नहीं, आदिनाथका ही था । 'पार्श्वनाथ मन्दिर के निर्माण कराये जानेके समर्थनमें विद्वानोंने जो भी सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं, उनमेंसे किसी एकसे भी उक्त तथ्यका समर्थन नहीं होता। प्रतीत होता है कि उक्त पार्श्वचरित'को ही भूलसे 'पार्श्वनाथ मन्दिर' मान लिया गया, जो सर्वथा भ्रमात्मक है। १-२. दिल्ली जैन डायरेक्टरी, पृ०, ४ -२३० - Jain Education International : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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