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________________ अपनेको सजाती है । पद्मानन्दकी कल्पनासे प्रसूत यह परम्परित रूपक सर्वथा अनूठा है। यों भी सांगरूपक प्रस्तुत करने में यह कवि सिद्धहस्त है ।। पद्मानन्दके मतमें दान और तप यदि वैराग्य-युक्त मनसे किये जायें तभी सार्थक होते हैं। यदि अङ्गनामें लावण्य ही न हुआ तो केवल विभ्रमों या हाव-भावोंकी उछलकूद कितना आकर्षण उत्पन्न कर सकेगी ? इसी प्रकार यदि अन्तविवेक उत्पन्न न हुआ तो सारे शास्त्र, जप, तप व्यर्थ हैं क्योंकि ये सब तो साधनमात्र है-साध्य है तत्त्वज्ञान, विवेकख्याति । इसीलिए वे कहते हैं कि सारी कलायें जान लीं तो क्या हुआ ? उग्र तप भी तप लिया तो क्या? यदि कलङ्क रहित यश भी कमा लिया तो क्या ? यदि विवेककी कली न खिली ? विवेक ही तो है जो मनुष्य-मनुष्यमें अन्तर स्पष्ट करता है अन्यथा हंस और बगुले, कोकिल और काक तथा सुवर्ण और हल्दीमें क्या अन्तर ? रङ्ग तो दोनोंका एक ही है । किन्तु चाल, बोली और मूल्य क्रमशः इनके महत्त्वमें अन्तर स्पष्ट करते हैं। इसी प्रकार मनुष्योंकी गरिमा और महत्तामें न्यूनाधिक्य उनके गुणोंके कारण होता है शौक्ल्ये हंस-बकोटयोः सति समेयद्वद्गतावन्तरं, काष्ण्ये कोकिलकाकयोः किल यथा भेदो भृशं भाषिते, पैत्ये हेमहरिद्रयोरपि यथा मूल्ये विभिन्नार्घता, मानुष्ये सदृशे तथार्य खलयोर्दूरं विभेदो गुणैः ।। और जब विवेक ज्ञान या तत्त्वार्थबोध हो जाता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि कषाय चतुष्क कुछ नहीं बिगाड़ पाते । यही साधना की चरम उपलब्धि है । पद्यानन्दने पूर विश्वास के साथ कहा है ता एवैताः कुवलयदृशः, सैष कालो बसन्तस्, ता एवान्तः शुचिवनभुवस्ते वयं, ते वयस्याः । कि तूझतः स खलु हृदये तत्त्व दीपप्रकाशो, येनेदानी हसति हृदयं यौवनोन्मादलीलाः ।। कमलनेत्री सुन्दरियाँ अब भी वे ही हैं, वसन्त काल वही है, सुन्दर वन प्रदेश भी वे ही हैं, हम भी वे ही हैं और मित्रगण भी वे ही हैं किन्तु तत्त्वदीपका प्रकाश हो जानेसे अब हृदय यौवनको उन्मत्त लीलाओं में डूबता नहीं अपितु उन पर हँसता है । सम्भवतः यह श्लोल “यः कोमारहरः स एव हि वरः" आदि सुप्रसिद्ध शृंगारी श्लोकका प्रत्युत्तर है । वाणीके विष यमें तो कविका कथन प्रत्येक कवि, वक्ता या लेखकको अपने सामने बड़े अक्षरोंमें लिख कर टाँग लेना चाहिये ललितं सत्य-संयुक्तं, सुव्यक्तं सततं मितम् । ये वदन्ति सदा तेषां, स्वयं सिद्धव भारती ।। जो लोक सत्य, मधुर, स्पष्ट (जिसे सब समझ सके), परस्पर सम्बद्ध और नपी-तुली बात बोलते हैं, उन्हें वाणी सिद्ध हो जाती है। वे जो बोलते हैं. वह व्यर्थ नहीं जाता। और पद्मानन्द निश्चय ही सिद्धवाक् कवि थे। -२२० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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