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________________ मध्य में कृशता, नेत्रों और भृकुटियोंमें वक्रता, बालोंमें कुटिलता, ओठमें रक्तता, गति में मन्दता, कुचमण्डलमें कठोरता, दृष्टि में तरलता इतनी सारी अस्वाभाविक बातें स्त्रीमें स्पष्ट दिखती हैं, फिर भी लोगोंका मन उनकी ओरसे नहीं हटता । शंकराचार्यने कहा थाअंग गलितं पलितं मुण्ड, दशन-विहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशापिण्डम् । और इसी सरल बातको पद्मानन्द साहित्यिक शैलीमें कहते हैंपाण्डुत्वं गमितान् कचान् प्रतिहतां तारुण्य-पुण्य- श्रियम्, चक्षुः क्षीणबलं कृतं श्रवणयोर्वाधिर्यमुत्पादितम् । स्थानभ्रंशमवापिताश्च जरया दन्तास्थिमांस-त्वचः, पश्यन्तोऽपि जडा हा हृदि सदा ध्यायन्ति तां प्रेयसीम् ॥ केश सफेद हो गये, जवानीकी चमक-दमक नष्ट हो गयी, आँखोंकी शक्ति दुर्बल पड़ गयी, कानोंमें बहरापन आ गया, बुढ़ापेके कारण दाँत, मांस और त्वचा सब अपना स्थान छोड़ गये । फिर भी ये मूर्ख हैं कि अपना ध्यान प्रेयसीकी ओरसे नहीं हटाते । और पद्मानन्दकी यह धिक्कृति उन कवियोंके लिये भी है। जो जीवन भर आपादमस्तक श्रृंगारमें ही डूबे रहते हैं । एक हाथी है महामिथ्यात्व का । चारों क्रोधादि कषाय उसके पाँव हैं । व्यामोह उसकी सूँड है । राग और द्वेष ये दो उसके बड़े-बड़े दाँत हैं । दुर्वार मार उसका मद है । जो इस मत्त हाथीको तत्त्व ज्ञानके अंकुशकी सहायतासे अपने चातुर्य के द्वारा वशमें कर लेता है, वह तीनों लोकोंको जीत लेता है । कितने सुन्दर और सर्वांगपूर्ण रूपकके द्वारा कविने अपनी बातको प्रस्तुत किया है क्रोधाद्युग्रचतुष्कषायचरणो व्यामोहहस्तः सखे, रागद्वेषनिशात दीर्घदशनो दुर्वारमारोद्धुरः । सज्ज्ञानांकुशकोशलेन स महामिथ्यात्वदुष्टद्विपो नीतो येन वशं वशीकृतमिदं तेनैव विश्वत्रयम् ।। एक दूसरा परम्परित रूपक देखिये सज्ज्ञानमूलशाली दर्शनशाखश्च येन वृत्ततरुः । श्रद्धाजलेन सिक्तो मुक्ति फलं तस्य स ददाति ॥ किसी वृक्षको रोपें तो पहले उसकी जड़ों भूमिमें लगती हैं । शाखायें फूटती हैं और तब फल लगते हैं । सच्चारित्र्य भी एक वृक्ष है। उसकी शाखायें हैं । श्रद्धाका जल उसे सींचता हूँ तब कहीं कष्ट मुक्तिका फल उसमें लगता है । सांसारिक विषयोंकी ओरसे मन हटानेके लिये शरीरकी चरम परिणतिको देखना-समझना आवश्यक है । इससे जीवनकी यथार्थताका भान होता है और मोह दूर होकर निःसंगताकी प्राप्ति होती है । इसीलिये सारे सन्तोंने मृत्युके भयावह दृश्य भक्तोंके सामने प्रस्तुत किये हैं । पद्मानन्दने भी कहा भार्येयं मधुराकृतिर्मम मम प्रीत्यन्वितोऽयं सुतः, स्वर्णस्यैव महानिधिर्मम ममासौ बन्धुरो बन्धवः । रम्यं हर्म्यमिदं ममेत्थमनया व्यामोहितो मायया, मृत्युं पश्यति नैव दैवहतकः कुद्धं पुरश्चारिणम् ।। यह मेरी सुन्दर स्त्री है । यह मेरा प्यारा बेटा है। सोनेकी बड़ी राशि मेरे पास है । मेरा भातृस्नेही भाई है । यह शानदार महल मेरा अपना है । अभागा व्यक्ति इसी मायामें खोया रहता है और सामने = २१८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only उसे जलसे सींचते हैं । तब उसमें सत् ज्ञान उसका मूल है । दर्शन www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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