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________________ है। जैन कवि सामान्यतया साधु या मुनि थे, घरबारसे विमुक्त उनका संघर्ष मानसिक था। वे मार, मन और इन्द्रियोंके लौल्यके विरुद्ध सक्रिय संघर्ष में रत थे। इसीलिये उनकी वैराग्योक्तियोंमें अधिक तन्मयता और ईमानदारी परिलक्षित होती है । जैन कवियोंका वैराग्यवर्णन कोरा बौद्धिक विलास नहीं है । यह उनकी साधनाका एक प्रमुख अंग है और पद्मानन्द इसी साधनाके कवि हैं । कवि पद्मानन्द नागपुर या उसके समीपस्थ किसी स्थानके रहने वाले थे । इनके पिता श्रेष्ठी श्री धनदेव ने अपने गुरु श्री जिनवल्लभके उपदेशोंसे प्रेरित होकर नागपुर में श्री नेमिनाथका मन्दिर बनवाया था । निश्चित ही ये श्रेष्ठ विद्वान् भी रहे होंगे । स्वयं उन्होंने कहा है सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः । श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च यस्याङ्गज: पद्यानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्द-संपत्तये । उनका काल १७वों शती ईसवीके बादका जान पड़ता है । वे शाकिनी आदि तांत्रिक शब्दोंसे परिचित है । उन्होंने जयदेव, भर्तृहरि और पण्डितराजको पढ़ा था और इन पर उक्त कवियों की यत्र-तत्र छाया भी है । शतकके अन्तमें वे कहते हैं कि जो आनन्द मेरे शतकको सुनने में है, वह न तो पूर्णेन्दुमुखीके मुख में है, न चन्द्रबिम्बके उदय में है, न चन्दनके लेप में है और न अंगूरका रस पीने में है : संपूर्णेन्दुमुखीमुखे न च न च श्वेतांशुबिम्बोदये, श्रीखण्डद्रवलेपने न च न च द्राक्षारसास्वादने । आनन्दः स सखे न च क्वचिदसौ किंभरिभिर्भाषितः, पद्मानन्दशते श्रुते किल मया यः स्वादितः स्वेच्छया । पण्डितराज जगन्नाथने कृष्णभक्तिके विषयमें भी यही बात कही थी मद्वीका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं पयः, स्वर्या तेन सुधाप्यधायि कतिधा रम्भाधरः खण्डितः । सत्यं ब्रूहि मदीय जीव भवता भूयो भवे भ्राम्यता, कृष्णेत्यक्षरयोरयं मधुरिमोद्गारः क्वचिल्लक्षितः । शा० वि० ७ पण्डितराज बड़े काव्यशिल्पी थे। इसलिये उनके रचनास्तरका ऊँचा होना स्वाभाविक है। फिर भी एक अन्तर तो स्पष्ट है कि पद्मानन्दकी 'रम्भाधर' में रुचि नहीं है। यह अन्तर, जैसा कि ऊपर कहा है, वैष्णव और जैन कवियोंमें सर्वत्र मिलेगा। शतकके प्रारम्भमें पद्मानन्दने जिनपतिकी स्तुति की है जिनके लिए त्रिलोकी करतल पर लुठित मुक्ताके समान तो हैं ही, वे हास, विलास और त्राससे तीनोंके रभसोंसे मुक्त हैं। वह उन योगियोंकी वन्दना करते हैं जिन्होंने अपने विवेकके वज्रसे कोपादि पर्वतोंको चूर-चूर कर डाला है, योगाभ्यासके परशुसे मोहके वृक्षोंको काट दिया है, और संयमके सिद्ध-मंत्रसे तीव्र कामज्वरको बाँध दिया है। वह उन साधुओंके सम्मुख प्रणत हैं जिन्होंने अतुल प्रेमांचित प्रेयसीको शाकिनीके समान एवं प्राण-समा लक्ष्मीको सर्पिणीके सदृश छोड़ दिया है और जो चित्रागवाक्षराजि वाले महलका उपभोग वल्मीकके समान करते हैं। वह उस महापुरुषको बड़ा मानते हैं जो पर-निन्दामें मूक, पर नारीके देखने में अंध, और परधनके हरणमें पंगु हैं। इनके मतमें माध्यस्थ्य वृत्तिसे रहनेवाला ही योगी और प्रणम्य है और यह माध्यस्थ्य वृत्ति है-आक्रोशसे पीड़ित न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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