SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम साहित्य साध्वी कनकश्री जैन साहित्य आगम और आगमेतर- इन दो भागोंमें विभक्त है। जैन वाङमय का प्राचीन भाग आगम कहलाता है। आगम साहित्य चार विभागोंमें विभक्त है- १. अंग २. उपांग ३. छेद और ४. मूल । आगमसाहित्यका यह वर्गीकरण प्राचीन नहीं है। इसका प्राचीन वर्गीकरण अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्यके रूपमें उपलब्ध होता है। __ अंग-प्रविष्ट साहित्य महावीरके प्रमुख-शिष्य गणधरों द्वारा रचित होनेके कारण सर्वाधिक मौलिक और प्रामाणिक माना जाता है अहंत अपने अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनके आलोकमें विश्व-दर्शन कर सत्य को उभासित करते है और गणधर शासन-हितके लिए उसे सूत्र रूपमें गूंथते हैं । वह विशाल ग्रन्थ-राशि सूत्र या आगमके नामसे पुकारी जाती है।' अमितज्ञानी केवली तप, नियम और ज्ञानके वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्य जनोंको प्रबोध देने हेतु ज्ञान की वर्षा करते हैं और गणधर अपने बुद्धिमय पटमें उस सम्पूर्ण ज्ञान-वर्षाको ग्रहण कर लेते हैं । इस प्रकार वे तीर्थ-हितकी दृष्टिसे तीर्थंकरकी वाणीको सूत्ररूपमें गूंथते हैं । यही गणधर सन्दृब्ध साहित्य-राशि अंग प्रविष्ट कहलाती है । स्थविरोंने जिस साहित्यकी रचना की वह अनंग-प्रविष्ट है। द्वादशांगी अंग-प्रविष्ट है। उसके अतिरिक्त सम्पूर्ण साहित्य अनंग-प्रविष्ट है। ऐसा भी माना जाता है कि गणधरोंके प्रश्न पर भगवान्ने त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो साहित्य रचा गया, वह अंग-प्रविष्ट कहलाया और भगवान्के मुक्त व्याकरणके आधार पर जो साहित्य रचा गया, वह अनंगप्रविष्ट कहलाया। दिगम्बर साहित्यमें आगमोंके ये दो ही विभाग उपलब्ध होते हैं-अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । अनंग प्रविष्ट के नामोंमें अवश्य अन्तर है। १. आ. नि. ९२- अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स दियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तई ॥ २. आ० नि० ८९-९० - तव नियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणवुट्टि भवियजण विवोहणट्ठाए । तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेस । तित्थयर भासियाई गथन्ति तओपवयणट्ठा ॥ ३. विशेषावश्यक भाष्य, ५५०-गणहर थेरककंवा आएसा मुक्क वागरणतो वा । धुव चल विसेसतो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। ४. तत्त्वार्थसूत्र, १-२० ( श्रुतसागरीय वृत्ति ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy