SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष महलकी परथम सीढ़ी समकित नीरज जैन, सतना अनादि कालीन संसार परिभ्रमणके घनघोर अन्धकारमें भटकते हए भव्य जीवके लिए, सम्यग्दर्शन प्रकाशकी प्रथम किरण है। यह भव-भ्रमण के अपार-पारावारमें निमग्न, निराश्रित और निराश पथिकके लिए दिशा-सूचक ज्योति स्तम्भ है । ऐसा अति दुर्लभ सम्यग्दर्शन जिन्हें उपलब्ध हो गया है वे प्रणम्य है । "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"के विख्यात सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी एकताको ही मोक्ष मार्ग कहा गया है । इनके विपरीत, समन्तभद्रने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको संसारका मार्ग निरूपित किया है (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३)। तथापि मोक्ष मार्गकी प्राप्तिके लिए इन तीनोंमें भी सम्यग्दर्शनकी विशेषता आचार्योने स्वीकार की है । स्वामी समन्तभद्रने सम्यग्दर्शनको मोक्ष मार्गमें कर्णधार घोषित किया (श्लोक ३१) । इसी प्रकार कुन्दकुन्द आगमके प्रवक्ता टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रने अपने ग्रन्थ 'पुरुषार्थसिद्धियुपाय' (श्लोक २१) में सम्यग्दर्शनकी महिमा स्थापित करते हये लिखा है कि इन तीनोंमें प्रथम, समस्त प्रकारके उपायोंसे सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये, क्योंकि इसके होते हुए ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है । ___ संसार सागरसे मोक्ष के लिए ऐसे खेवटिया सम्यग्दर्शनकी महिमा अनेक ग्रन्थोंमें गाई गई है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका की प्रस्तावनाके रूपमें श्रीमान् पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्यने सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें बहुविध विचार किया है। संस्कृत साहित्यकी बात मैं नहीं जानता, परन्तु हिन्दीमें इसके पूर्व, सम्यग्दर्शन पर इतना विश्लेषणात्मक लेखन एक साथ कहीं देखनेको नहीं मिला था। इसमें पण्डितजीने चारों अनुयोगोंकी कथनकी अपेक्षा भी सम्यग्दर्शन पर विचार किया है। दिगम्बर जैन प्रबुद्ध समाजमें 'सम्यग्दर्शन' ही आज सबसे अधिक चर्चित विषय है। सम्यग्दृष्टि जीवकी उपलब्धियाँ क्या-क्या हैं ? उसके कौन-कौनसे विकार दूर हो गये हैं ? उसे अपनी यह स्थिति बनाये रखनेके लिए क्या-क्या करणीय है ? आदि आदि प्रश्नों पर समाजमें और समाचार पत्रोंमें प्रायः चर्चा चलती रहती है । सम्यग्दृष्टि जीवकी वीतरागता, उसका चारित्र, उसकी अबन्धक दशा और उसकी आत्मानुभतिके प्रश्नको लेकर प्रायः खोंचतान भी होती रहती है। इस निबन्ध में इन्हीं बातों पर विचार किया जायेगा । विचार करनेके लिए यदि हम शास्त्रोंका वर्गीकरण करें, तो हमें पता लगता है कि सम्यग्दृष्टि जीव और उसकी उपलब्धियोंको लेकर एक तो हमारे पास निर्ग्रन्थ मुनिराजों और आचार्यों द्वारा प्रणीत परम्परा है । इस परम्परामें, निम्रन्थ अवस्थासे पहिले तक, सम्यग्दृष्टि को, न तो शुद्धात्मानुभूतिसे युक्त मानते हैं, न शुद्धोपयोगी मानते हैं, न ही उसमें रत्नत्रयका प्रारम्भ मानते हैं, और न ही उसे सिद्धके समान अबन्धक कहते है। आचार्यांकी इस परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र, जयसेन, जिनसेन आदिके नाम गिनाये जा सकते है । - १६३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy