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________________ विष्णुसहस्रनाम और जिन सहस्त्रनाम लक्ष्मीचन्द्र सरोज, एम० ए०, जावरा, म० प्र० हिन्दु के विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रके समान जैनों में भी सहस्रनाम स्तोत्र प्रसिद्ध है । प्रायः दोनों समाजों में भक्तजन प्रतिदिन सहस्रनाम स्तोत्र पढ़ते हैं । अन्तर केवल इतना है कि हिन्दू समाजमें यह स्तोत्र पूजनके पश्चात् पढ़ते हैं और जैन समाज में यह स्तोत्र पूजनकी प्रस्तावना में पढ़ते हैं । असुविधा या शीघ्रताके कारण जो जिनसहस्रनाम पढ़ नहीं पाते हैं, वे भी प्रतिदिन जिनस हस्र नामके लिये अर्ध्य तो चढ़ाते ही हैं । पर्युषण या दशलक्षण पर्व में तो प्रायः सभी स्थानों पर पूजनकी प्रस्तावना में जिनसहस्रनाम पढ़नेकी और उसके प्रत्येक भागकी समाप्ति पर अध्यं या पुष्प चढ़ाने की भी परम्परा है । यद्यपि जिनसहस्र नाममें जिन भगवानके और उनके गुणोंको व्यक्त करने वाले एकहजार आठ नाम हैं, तथापि इसकी ख्याति सहस्रनामके रूपमें वैसे ही है जैसे मालामें एक सो आठ मोती या दाने होने पर भी हिन्दू लोग उन्हें सौ ही गिनते हैं, अथवा उपलब्ध सतसइयों में सात सौ से अधिक छन्द होने पर भी उन्हें सात सौ ही गिनते हैं । प्रस्तुत प्रसँगमें उल्लेखनीय यह भी है कि हिन्दू धर्म में विष्णु सहस्रनामके समान शिवसहस्रनाम या गोपालसहस्रनाम और सीतासहस्रनाम भी मिलते हैं । इसी प्रकार जैनोंमें भी जिनवाणीमें संग्रहीत लघुसहस्रनाम भी पठनार्थ मिलता है । संज्ञा और रचयिता दोनों सहस्र नामों की संज्ञा सार्थक है । विष्णुसहस्र नाममें भगवान विष्णुके एक हजार नाम हैं और जिनसहस्र नाममें भागवान जिनके एक सहस्र नाम हैं । विष्णुसहस्र नामके रचयिता महर्षिवर वेदव्यास हैं । यह उनके अमर ग्रन्थ महाभारतके आत्मानुशासन पर्वमें भीष्म युधिष्ठिर सम्वादके अन्तर्गत है । जिनसहस्रनाम स्तोत्र के रचयिता आचार्य जिनसेन हैं, जो कीर्तिस्तम्भके सदृश अपने आदि पुराण के लिये सुप्रसिद्ध हैं । छन्द, प्रस्तावना और समापन दोनों सहस्रनाम स्तोत्र संस्कृत भाषाके उस अनुष्टुप् छन्दमें हैं जो आठ अक्षरोंके चार चरणोंसे बना है । दोनों सहस्रनाम स्तोत्रोंमें अपनी प्रस्तावना है और अपना समापन है । पर जहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रकी प्रस्तावना में तेरह ओर समापन में बारह श्लोक हैं वहां जिनसहस्रनाम स्तोत्र की प्रस्तावनामें तेतीस और समापन में तेरह श्लोक हैं । विष्णुसहस्रनाममें कुल १४२ श्लोक हैं और जिन सहस्रनाम में कुल १६७ श्लोक हैं । दोनों सहस्र नाम अपने-अपने धर्म और देवताकी देन को सँजोये हैं । दोनों की अपनी शिक्षा और संस्कृति है, पर विष्णुसहस्रनाममें जहां लौकिक प्रवृत्ति भी लक्षित होती है, वहाँ जिनसहस्रनाममें अलौकिक निवृत्ति ही लक्षित हो रही है। जहां विष्णुसहस्रनाम में कर्तृत्वभाव मुखरित हो रहा है, वहाँ जिनसहस्रनाम प्रस्तुत प्रसंग में मौन है। उसमें आद्योपान्त वीतरागताका ही गुंजन हो रहा है । चूंकि दोनों स्तोत्र भक्तिमूलक हैं और भक्ति में भगवानका आश्रय लेना ही पड़ता है, अतएव विचारके धरातलमें दोनों ही सहस्रनाम भक्तिके प्रकाशस्तम्भ हैं । जहाँ विष्णुसहस्रनाम में एकमात्र विष्णु ही सर्वोपरि शीर्षस्थ हैं, वहाँ जिनसहस्रनाम में सभी जिनेन्द्रोंको पूर्णतया सर्वशक्तिसम्पन्न अनन्तदर्शन - ज्ञान-बल-सुखसम्पन्न समझने की १४७ - Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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