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________________ निर्ग्रन्थ नहीं हैं किन्तु संग्रहविनय से हैं, " यद्यपि निश्चयनयापेक्षया गुणहीनेषु न प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनयविवक्षावशात् सकलविशेषसंग्रहो भवति ।" जिस ग्रन्थकी टीका अकलंक कर रहे हैं, उसके विरुद्ध तो वे जा नहीं सकते थे, अतएव निर्ग्रन्थ कहने में उन्हें कोई बाधा नहीं किन्तु स्पष्ट किया कि ये नाम मात्रके निर्ग्रथ हैं । उनमें निर्ग्रन्थके गुण नहीं । सर्वार्थसिद्धिमें गुणका तारतम्य मानकर पुलाकादिको निर्ग्रन्थ माना जबकि यहाँ केवल नाममात्रसे माना हैं और भग्नव्रत निर्ग्रन्थके बाह्य रूपको भी लेकर उन्हें श्रावक शब्दवाच्य नहीं माना जा सकता, यह भी अकलंकने कहा है, "यदि भग्नव्रतेऽपि निर्ग्रन्थशब्दो वर्तते, श्रावकेपि स्यादिति अतिप्रसंग: 1 नैष दोषः । कुतः ? रूपाभावान् निर्ग्रन्थरूपाभावात्, निर्ग्रन्थरूपमत्र नः प्रमाणं, नच श्रावके तदस्ति, इति नातिप्रसंग: । " यहाँ एक बात और ध्यान देना जरूरी है । पूज्यपादने मात्र इतना ही कहा था कि पुलाकादि व्रतोंका पालन पूर्णरूपसे नहीं करते । इसी आधारपर अकलंकने भी पूज्यपादका अनुसरण ही किया है । आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में भी आगमके अंग-अंग बाह्य का प्रामाण्य स्वीकृत किया है। (१२० - ४) और “सत्यं श्रुतं सुनिर्णीतासंभवाद्बाधकत्वतः । " ( ९.२० - ६५ ) इस अनुमानसे भी प्रामाण्य सिद्ध किया है और अन्तमें कहा हैं : प्रोक्तभेदप्रभेदं तच्छ्रुतमेव हि तद्दृढम् । प्रामाण्यमात्मसात्कुर्यादिति नश्चितयात्र किम् ।। १.२०.८३ ।। तत्त्वार्थ के उक्त दिगम्बर टीकाकारोंके मतसे आगमके आचारादि अंग्रप्रविष्ट और दशवैकालिक आदि अंगाका प्रमाण्य है, इतना तो सिद्ध होता ही है और इन टीकाकारोंने आगमविच्छेदकी कोई चर्चा भी नहीं की। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे अपने काल तक उनके अस्तित्वके विषयमें भी संदिग्ध नहीं थे । अर्थात् ही जिनग्रन्थोंको वे नामतः स्वीकार करते हैं । उनका अस्तित्व भी उनके काल तक निश्चित रूपसे था ही, विच्छेदका प्रश्न ही नहीं उठता । आचार्य विद्यानन्दकी पुलाकादिकी चर्चामें स्पष्ट रूपसे वस्त्रादिकी चर्चाने स्थान पाया है । वहाँ मूर्च्छा और बाह्य वस्तुग्रहणके कार्यकारणकी चर्चा भी है और निर्ग्रन्थका बाह्यरूप यथाजात ही हो सकता है । अतएव वस्त्रधारी निर्ग्रन्थ नहीं कहे जा सकते । पुलाकादिको व्यवहारसे और निश्चयसे भी निर्ग्रन्थ कह सकते हैं किन्तु वस्त्रधारीको नहीं, यह स्पष्टीकरण श्वेताम्बर दिगम्बर के सम्प्रदायभेदको स्पष्ट रूपसे व्यक्त करता है । उन्होंने कहा है : पुलाकाद्या मताः पंच निर्ग्रन्था व्यवहारतः निश्चयाच्चापि नैर्ग्रन्थ्य सामान्यस्याविरोधतः । वस्त्रादिग्रन्थसंपन्ना ततोऽन्ये नेति गम्यते -- तत्त्वार्थश्लोक ९-४६, १ । “रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघ : " ( ६-१३) यह व्याख्या संघकी पूज्यपादने की थी । अकलंकने भी यही व्याख्या मानी है । साथ ही, दिगम्बर मुनि अकेले भी विचरण करते हैं, इस दृष्टिसे समाधान भी किया है कि एक व्यक्तिका भी संघ हो सकता है । इसके लिए आधार भगवती आराधना ( गा० ७१४ ) है | विद्यानंद भी यही कहते हैं । किन्तु श्रुतसागरने संघकी जो व्याख्या की है, वह है, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपात्राणां श्रमणानां परमदिगम्बराणां गणः समूहः संघ उच्यते ।' (६-१३) स्पष्ट है कि श्वेताम्बर मुनियोंके समुदायको संघ नहीं कहा जा सकता । केवलिके अवर्णवादके विषयमें श्रुतसागरने लिखा है, "केवलिनः किल केवलज्ञानिनः कवलाहारजीविनः तेषां च रोगो भवति, उपसर्गश्च संजायते, नग्ना भवन्त्येव परं वस्त्राभरणमण्डिता दृश्यन्ते ।" इत्यादि ६-१३ । इससे इनकी वेताम्बर शास्त्रकी विशेष जानकारी प्रगढ़ होती है । Jain Education International - १३८ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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