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________________ जैन-परम्परामें सन्त और उनकी साधना-पद्धति डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन सन्त : लक्षण तथा स्वरूप सामान्यतः भारतीय सन्त साधु, मुनि, तपस्वी या यतिके नामसे अभिहित किए जाते हैं। समयको गतिशील धारामें साध-सन्तोंके इतने नाम प्रचलित रहे हैं कि उन सबको गिनाना इस छोटेसे निबन्धमें सम्भव नहीं है। किन्तु यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि जैन-परम्परामें साधु, मुनि तथा श्रमण शब्द विशेष रूपसे प्रचलित रहे हैं । साधु चारित्रवाले सन्तोंके नाम हैं-श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दन्त या यति । बौद्ध परम्पराके श्रमण, क्षपणक तथा भिक्षु शब्दोंका प्रयोग भी जैनवाङ्मयमें जैन साधुओंके लिए दृष्टिगत होता है। हमारी धारणा यह है कि साधु तथा श्रमण शब्द अत्यन्त प्राचीन हैं। शौरसेनी आगम ग्रन्थोंमें तथा नमस्कार-मन्त्र में 'साहू' शब्दका ही प्रयोग मिलता है। परवर्ती कालमें जैन आगम ग्रन्थोंमें तथा आचार्य कुन्दकुन्द आदिकी रचनाओंमें साह तथा समण दोनों शब्दोंके प्रयोग भली-भाँति लक्षित होते हैं । साधुका अर्थ है-अनन्त ज्ञानादि स्वरूप शुद्धात्माकी साधना करनेवाला । जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख और क्षायिक सम्यवत्वादि गुणोंका साधक है, वह साधु कहा जाता है। 'सन्त' शब्दसे भी यही भाव ध्वनित होता है क्योंकि सत, चित् और आनन्दको उपलब्ध होनेवाला सन्त कहलाता है। इसी प्रकार जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टीके ढेले, स्वर्ण और जीवन-मरणके प्रति सदा समताका भाव बना रहता है, वह श्रमण है । दूसरे शब्दोंमें जिसके राग-द्वेषका द्वैत प्रकट नहीं होता, जो सतत विशुद्धदृष्टिज्ञप्ति-स्वभाव शुद्धात्म-तत्त्वका अनुभव करता है, वही सच्चा साधु किंवा सन्त है। इस प्रकार धर्मपरिणत स्वरूपवाला आत्मा शुद्धोपयोगमें लीन होने के कारण सच्चा सुख अथवा मोक्षसुख प्राप्त करता है । साधु-सन्तोंकी साधनाका यही एकमात्र लक्ष्य होता है। जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते है, वे राग-द्वेषादिसे रहित धर्म-परिणति स्वरूप शद्ध साध्यको उपलब्ध करनेवाले होते हैं, उन्हें ही उत्तम मुनि कहते हैं। किन्तु प्रारम्भिक भूमिकामें उनके निकटवर्ती शुभोपयोगी साधु भी गौण रूपसे श्रमण कहे जाते हैं । वास्तवमें परम जिनको आराधना करनेमें सभी जैन सन्त-साधु स्व-शुद्धात्माके ही आराधक होते हैं क्योंकि निजात्माकी आराधना करके ही वे कर्म-शत्रुओंका विनाश करते हैं । साधुके अनेक गुण कहे गए हैं। किन्तु उनमें मूल गुणोंका होना अत्यन्त अनिवार्य है। मूलगुणके बिना कोई जैन साधु नहीं हो सकता। मूलगुण ही वे बाहरी लक्षण हैं जिनके आधारपर जैन सन्तकी १. समणोत्ति संजदोत्ति य रिसिमुणिसाधुत्ति वीदरागोत्ति । णामाणि सूविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।। मलाचार, गा० ८८६ "अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः ।"-धवला टीका, १, १, १ ३. समसत्तुबन्धुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणि दसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो । प्रवचनसार, गा० २४१ -१२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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