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________________ प्रकारका है-सर्वदेशविरति तथा एकदेशविरति । पाँचों पापोंका यावज्जीवन सर्वथा त्याग सकल चरित्र है और एक देशत्याग देशचरित्र है। सर्वदेशविरतिम यति या साध निरत होता है और एकदेशविरतिमें श्रावक या गृहस्थ । श्रावकोंके बारह व्रत है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत । एकदेशविरतिसे सर्वदेशविरतिकी ओर बढ़ा जाता है, माध्यस्थभावकी ओर उठा जाता है, उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है। इस स्थितिमें पाँचमहाव्रत होने लगते है, करने नहीं पड़ते । पाँचमहाव्रत पाँच महापापोंका निरोध है और वस्तुतः देखा जाय तो ये पाँच महापाप हिंसा ही हैं । अतः अहिंसा ही महाव्रतोंमें प्रमुख है। जैनधर्मका हृदय यही अहिंसा है । अहिंसा की नहीं जाती, हिंसा नहीं की जाती है । अहिंसा फलित होती है। हिंसा निवृत्त हो जाय तो जो शेष रह जायगा, वही अहिंसा होगी। अतः अहिंसा निषेधात्मक है, यह समझना ऐकान्तिक सत्य नहीं है । हिंसाका निषेध आचारमें ही नहीं होना चाहिये, विचारमें भी होना चाहिये। विचारगत हिंसा ही एकान्त दर्शन है और अहिंसा अनेकान्त दर्शन । इस प्रकार समूचा जैनधर्म अपने आचार और विचारमें अहिंसा ही है। हिंसाकी विवृत्ति राग-द्वेषकी निवृत्ति है। अतः रागद्वेषमें रहकर अहिंसा करनी अहिंसामें ही हिंसा करनी है। रागद्वेष हीनकी हिंसा भी अहिंसा है। अतः सर्वावरणमूल हिंसा ही है। रागद्वष ही है। इस पर विजय प्राप्त करने वाला जिन है । हिंसाके विषयमें ठीक ही कहा है : आत्मपरिणामहिंसनहेतु त्वात्सर्वहिंसतत् । अन्तवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ आत्माके कुद्धोपयोग रूप परिणामोंके घात करनेके कारण असत्यवचनादि सभी पाप हिंसात्मक ही हैं । असत्यादि भेदोंका पापरूपमें कथन महज मन्दुबुद्धिवालों के लिये है। हिंसाको और स्पष्ट करते हुये कहा गया है : यत्खलु कसाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्यकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति हसेतिजिनागमस्य संक्षेपः ।। जैनागमका संक्षेप और सार यही है कि रागादि भावोंका प्रकट होना ही हिंसा है और उनका अप्रकट, शान्त या उच्छिन्न हो जाना ही अहिंसा है । कषाय (रागादि) वश अपने और परके भावप्राण तथा द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है। इस हिंसाके चार रूप हैं-स्वभावहिंसा, परभावहिंसा, स्वद्रव्यहिंसा, परद्रव्यहिसा । अभिप्राय यह है कि मूल हिंसा रागद्वेष ही है। इसका प्रकाश वाह्य हिंसा है। साधकको दोनों पर ही बल देना है। भीतर अनासक्ति हो, तो बाहरी परिग्रह अवश्य अपरिग्रह है। पर अपरिपक्व कषायवालेको वाह्य परिग्रह प्रभावित करता है। अतः भीतर और वाह्य-दोनोंसे साधना करनी चाहिये, आचरण करना चाहिये। अतः साधकको चाहिये कि पहले वह असम्यक दष्टि बने । देशचरित्र धारण करने पर वह पंचम it हो जाता है। जब सकलचरित्र धारण करने लग जाता है, तब वह छठे गुणस्थान पर पहुँच जाता है। इन तीनों प्रथम, 'पञ्चम, षष्ठ गुणस्थानवाले जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे च्युत होनेपर दूसरे तीसरे गुणस्थानको प्राप्त होते हैं और परिणामोंकी विशुद्धि तथा चारित्रकी वृद्धि होने पर सातवेंसे लेकर ऊपरके गुणस्थानोंकी ओर बढ़ते हैं। पहले, चौथे, पाँचवें और तेरहवें गुणस्थानका काल अधिक है, शेषका -१२१ - . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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