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________________ जैन चिन्तक इसका उत्तर देते हुए यह कहते हैं कि यह ठीक है कि ज्ञानसे अज्ञानकी निवृत्ति होती है परन्तु जिस प्रकार सायनका श्रद्धापूर्वक ज्ञानकर उपयोग या सेवन किया जाय, तभी आरोग्यरूप पूराफल मिलता है, उसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान पूर्वक, निष्ठाके साथ किया गया आचरण ही अभीष्ट फल पैदा करता है। जिस प्रकार अज्ञानियोंकी क्रिया व्यर्थ है, उसी प्रकार क्रियाहीनका ज्ञान व्यर्थ है और उसके लिए दोनों ही व्यर्थ है, जिसमें निष्ठा या श्रद्धा नहीं है। इस प्रकार अभीष्ट फलकी प्राप्ति के निमित्त श्रद्धा ज्ञान तथा चरित्र - तीनों सम्मिलित कारणता है । तीनोंकी सम्मिलित कारणताका निश्चय हो जानेके बाद एक-एक पटकके स्वरूपपर विचार अब प्रसंग प्राप्त है । सम्यक्दर्शन सम्यक् एक निपात शब्द है जिसका अर्थ होता है प्रशंसा। कभी-कभी मिथ्या या असम्यक्के विरोधमें भी इसका प्रयोग होता है। इस प्रकार सम्यक् विशेषण विशेष्यों में सम्भावित मिथ्यात्वकी निवृत्ति फलतः उनकी प्रशस्तता अथवा अभ्यर्हताका भी योतक है। सम्यगिष्टार्थतस्ययोः' के अनुसार सम्पक शब्दका अर्थ, इष्टार्थ अथवा तत्त्व भी होता है । पर निपात शब्द अनेकार्थक होते हैं । अतः प्रसंगानुसार प्रशस्त अर्थ भी लिया जा सकता है । यों तत्त्व अर्थ भी लिया जा सकता है जिसका अभिप्राय तत्त्व दर्शन भी किया जा सकता है । 'दर्शन' शब्द दर्शन भाव या क्रियापरक तो हैं ही, दर्शन साधन-परक तथा दर्शनकर्ता-परक भी है। अर्थात् दर्शन क्रिया तो दर्शन है ही, वह आत्मशक्ति भी दर्शन है जिस रूपमें आत्मा परिणत होकर दर्शनका कारण बनाती है। स्वयं दर्शन आत्मस्वभाव है, अतः वह कर्त्ता आत्मासे भी अभिन्न है। अभिप्राय यह है कि तत्त्वतः दर्शन आत्मासे भिन्न नहीं है। तथापि, स्वभावकी उपलब्धिके निमित्त जब आत्मा और दर्शनमें थोड़ा भेद मानकर चलना पड़ता है तब उसे भाव और कारणरूप भी माना जाता है । 'दर्शन' शब्द दृशि धातुसे बना है । अतः यद्यपि इसे भाव परक माननेपर 'देखना' के ही अर्थमें मानना उचित प्रतीत होता है, तथापि चूँकि धातुयें अनेकार्थक होती हैं, अतः यहाँ उसका अर्थ श्रद्धान ही लिया गया है । इसीलिए सम्यक् दर्शनको स्पष्ट करते हुए श्री उमास्वातिने उसका अर्थ तत्वार्थ श्रद्धान ही किया है। यों दर्शनका अर्थ श्रद्धान ही है, पर कहीं कोई अतत्वार्थका भी श्रद्धानका विषय न बना ले, इसीलिए तवार्थका स्पष्ट प्रयोग किया गया है। तत्त्वार्थमें भी दो टुकड़े हैं, तत्त्व तथा अर्थ तत्वका अर्थ है— तत्का धर्म । भाव मात्र जिस धर्म या रूपके कारण है, वही रूप है तत्त्व प्रकार तत्वार्थका अर्थ है- जो पदार्थ जिस रूपमें है, उसका उसी रूपसे ग्रहण करण व्युत्पत्तिक है । निष्कर्ष यह है कि तत्त्व रूपसे प्रसिद्ध अर्थोका श्रद्धान ही तत्त्व श्रद्धान है । । अर्थका अर्थ है ज्ञेय । इस श्रद्धान भी भाव कर्म तथा यह सम्यक दर्शन सराग भी होता है और वीतराग भी । पहला साधन ही है और दूसरा साध्य भी है प्रथम, सवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यसे जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है, वह सराग दर्शन है। तथा मोहनीयकी सात कर्म प्रकृतियोंका अत्यन्त निवास होनेपर आत्मविशुद्विरूप वीतराग सम्यकग्दर्शन होता है । उभयविध सम्यक् दर्शन स्वभावतः भी संभव है और परोपदेश वश भी। निसर्गज सम्यक् दर्शनके लिए अन्तरंगकारण है, दर्शन मोहका उपशम, क्षय या क्षयोपशम । यदि साधकमें दर्शन मोहका क्षयापशम हो, तो बिना उपदेश ही तत्त्वार्थ में श्रद्धा हो जाती है । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जर, एवं मोक्ष सात तत्व हैं । अधिगमज सम्यक दर्शनके निमित दो हैं, प्रमाण तथा नय । अभिप्राय यह है कि तत्त्वार्थ - ११९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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