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________________ नय वाक्यमें एवकार अनिवार्य होता है, प्रमाणवाक्यमें नहीं। इन दोनों ही शैलियोंको दर्शनके क्षेत्रमें पर्याप्त स्थान मिला है और जैनदर्शनकी समन्वय दृष्टि सामने आई है। इन मूलभूत चर्चाओंके अतिरिक्त, स्याद्वादके सात भंगों एवं नयके सात भेदोंका भी संक्षेपण इस अध्यायमें है। इस विवरणमें अनेक स्थानों पर पुनरुक्ति दोष आया है जो सरलतासे दूर किया जा सकता था। फिर भी, इस विवरणसे लेखककी अपार संक्षेपण शक्तिका पता तो चलता ही है। उपसंहार विद्वान् लेखकने जैन न्यायके उपरोक्त प्रमुख विषयोंका विवरण विभिन्न दर्शनोंके ६७ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों तथा ३१७ सन्दर्भोके आधारपर दिया है। लेखकके अनुसार इस ग्रन्थका प्रणयन न्यायशास्त्रके ग्रन्थोंकी जटिलतासे उत्पन्न उदासीनताकी स्थितिको दूर करनेके लिए विद्यार्थियों तथा ज्ञानप्रेमी जिज्ञासुओंके हितको लक्ष्य में रखकर किया गया है। लेखकने यह स्पष्ट बताया है कि इसका आधार शास्त्रीय ग्रन्थ और मान्यतायें हैं। अतः इस ग्रन्थमें मौलिकताका विशेष प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, लेखकने जटिल विषयोंको हिन्दी भाषामें रोचक रूपसे प्रस्तुत करने में और न्यायशास्त्रके प्रति रुचि जगानेमें अवश्य ही सफलता प्राप्त की है। यही नहीं, ग्रन्थके अध्ययनसे यह भी स्पष्ट है कि न्यायशास्त्रका अध्ययन अन्य दर्शनोंके ज्ञानके विना संभव नहीं है, अतः अध्येताओंको विभिन्न दर्शनोंका अध्ययन कर अपनी बौद्धिक प्रतिभाका विकास करना चाहिये। इससे तुलनात्मक दृष्टिकी समीचीनताके लिये आवश्यक तीक्ष्ण एवं गहन अध्ययनकी प्रेरणा मिलती है । वस्तुतः गहन अध्ययन ही हमारे विचारोंको परिपक्वता एवं सरल अभिव्यंजनीयता प्रदान करता है। लेखकका यह ग्रन्थ इस तथ्यका स्वतः प्रमाण है। उपरोक्त विवरणके समय विभिन्न स्थानोंपर यह भी संकेत किया गया है कि लेखक जटिल विचारोंको सरल भाषामें प्रस्तुत करने तथा उनके संक्षेपणकी कलामें सिद्धहस्त है । यही नहीं, अनेक अवसरोंपर उसने अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किये हैं। ये उनकी मौलिक चिन्तनशीलताके प्रतीक हैं। प्रस्तुत समीक्षक न्यायशास्त्रको बौद्धिक परीक्षण, पद्धतिशास्त्र मानता है। इस शास्त्रके विभिन्न विवरणोंके अध्ययनसे उसे प्रतीत हुआ है कि आगमकालसे लेकर अठारहवीं सदी तक विभिन्न न्यायशास्त्रियोंने भिन्न-भिन्न विषयोंपर अपने पूर्ववर्ती विचारकोंके मतोंकी समीक्षा की और उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन, परिवर्धन और परिवर्तन किया है। उन्होंने विचार और ज्ञानके प्रवाहको सदैव प्रवहमान रखा है । क्या बीसवीं सदीका विद्वद्वर्ग और प्रबुद्धवर्ग भी अपने इस दायित्वको निभा रहा है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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