SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपरिवर्तित रूपसे अपनायी है। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण मानकर जैनोंने दो प्रमाणोंके अन्तर्गत प्रायः उन सभी प्रमुख प्रमाणोंको मान्यता दी जो अन्य दार्शनिकोंने माने हैं। इस प्रकार जैन दार्शनिकों द्वारा सात प्रत्यक्ष और पाँच परोक्ष कुल बारह प्रमाण माने गये हैं। यही नहीं, जैन दार्शनिकोंने उन दर्शनोंकी पर्याप्त समीक्षा की है जो इससे का प्रमाण मानते हैं। साथ ही ऐसे मतोंकी भी परीक्षा की है जो अर्थापत्ति, अभाव आदि अतिरिक्त प्रमाणोंको मानते हैं। इस परीक्षा और समीक्षाका लेखकने अच्छा विवरण प्रस्तुत किया है। इस अध्यायमें प्रसंगवश अन्य प्रकरण भी दिये गए हैं। उदाहरणार्थ, इन्द्रिय प्रकरणमें नैयायिक सम्मत इन्द्रियोंकी नितान्त पौद्गलिकताका खण्डन करते हुए भावन्द्रिय रूप योग्यतापूर्वक शक्तिको उद्भासन, सर्वज्ञताकी सिद्धि तथा ईश्वरवादका खण्डन इनमें प्रमुख हैं । इन प्रकरणोंका विवेचन मुख्यतः न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा अष्टसहस्रीपर आधारित है। ज्ञानके प्रमाण माननेपर ज्ञानोत्पत्तिमें कारणभूत इन्द्रिय और मनके अतिरिक्त कुछ लोग पदार्थ और प्रकाशको भी इसमें कारण मानते हैं। लेकिन जैन उसे स्वीकार नहीं करते । इसमें सम्बन्धित तर्कवादका संक्षेपण भी यहाँ दिया गया है । प्रत्यक्ष प्रमाणके विवरणमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानके भेदोंमें अवग्रहके विषयमें लेखकने दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओंका संक्षेपण और विभेद प्रदर्शित किया है । इसी प्रकार उन्होंने दर्शन और अवग्रहसे सम्बन्धित अकलंक और सिद्धसेनकी मान्यताओंकी भी विवेचना की है। ये प्रकरण लेखककी उदार और तीक्ष्ण दृष्टिके घोतक हैं । ऐसे सुक्ष्म विभेदोंका ज्ञान गहन अध्येता ही कर सकता है। यही नहीं, उन्होंने भावी अध्येताओंके लिए इन प्रकरणोंको गम्भीरतासे अध्ययन करनेका सुझाव भी दिया है क्योंकि दोनों मान्यताओंका अन्तर सूक्ष्म है। परोक्ष प्रमाणकी विशद विवेचना करने वाला चतुर्थ अध्याय जैन न्यायका सबसे बढ़ा अध्याय है जो ग्रन्थका लगभग एक तिहाई भाग है। इसके अन्तर्गत परोक्षके पाँच भेदोंका सांगोपांग शास्त्रीय विवेचन किया गया है। बौद्धोंके तर्कोका खण्डन करते हुए स्मृति और प्रत्यभिज्ञानकी प्रमाणताका पोषण, नैयायिकों एवं मीसांसकोंके उपमानका सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, साध्य-साधनके अभिनाभाव सम्बन्धरूप व्याप्ति ज्ञानात्मक तर्कशास्त्रको प्रमाणता तथा व्याप्तिकी प्रत्यक्षग्राहयता, पंचावयवी अनुमानकी प्रमाणता तथा हेतु भेदविषयक संक्षिप्त विवेचनके बाद दो तिहाई अध्यायमें आगम या श्रृत प्रमाणसे सम्बन्धित विविध प्रकारके विवरणों एवं समस्याओंका निरूपण है। श्रुतमें शब्दकी मुख्यता है । पर कुछ लोग शब्दको प्रमाण नहीं मानते, इसे अनुमानमें समाहित करते हैं। जैनोंका मत है कि शब्द और अनुमानमें विषयभेद, सामग्रीभेद, अन्वयवतिरेकाभाव, वक्तृइच्छा वाच्यताके कारण भेद स्पष्ट है। बौद्धोंके लिए जैनोंका उत्तर है कि शब्द और अर्थमें प्रतिनियत योग्यता सम्बन्ध है । यह चक्षुकी तरह अर्थमात्रको प्रकाशित करता है। यह अर्थज्ञानमें प्रत्यक्षादिकी तरह निमित है, अतः प्रमाण है। इसी प्रकार जैन मीमांसकोंकी तरह न तो शब्दार्थ-सम्बन्धको नित्य मानते हैं और न बौद्धोंकी तरह अन्यापोहात्मक मानते हैं। इस विषयमें लेखकने शास्त्रीय तर्क प्रतितर्कोको अत्यन्त दक्षतासे उपस्थित किया है । इसी प्रकार शब्दका विषय सामान्य है या विशेष ? इस प्रश्नके उत्तरमें जैन इसे सामान्यमात्र न मानकर सामान्य-विशिष्ट विशेष मानते हैं। मीमांसक शब्दके अर्थ प्रतिपादकत्व गुणकी व्याख्याके लिये अनेक प्रमाणोंसे शब्दकी नित्यता निरूपित करते हैं। इसके विपरीत, जैन शब्दमे सादृश्यमूलक प्रत्यभिज्ञानके अभाव तथा अन्य तर्कोसे उसे अनित्य सिद्ध करते हैं। शब्दकी अनित्यताके आधारपर जैनोंने वेदके अपौरुषेयवादका भी खण्डन किया है क्योंकि -१०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy