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________________ 'ऐतिहासिक युग' नामक खण्डमें भगवान् पार्श्व एवं महावीरके जीवनका सम्पूर्ण विवरण, भद्रवाहु और चन्द्रगुप्त, अर्द्धफालक सम्प्रदाय, संघ भेदके मूल कारण वस्त्रपर विचार, गोशालकका जीवनवृत्त आदिका सविस्तार वर्णन है। 'श्रुतावतार' नामक खण्डमें, आगमसंकलना, जैन आगम और दिगम्बर परम्परा, बारह अंग, दृष्टिवाद अंगका लोप, दृष्टिवादमें वर्णित विषय, ३६३ मत, श्वेताम्बर परम्परामें श्रुत भेद, एकादश अंगोंका परिचय, पूर्वोसे अंगोंकी उत्पत्ति, उपांग, छेदसूत्र, मूलसूत्र तथा पइन्ना आदिका वर्णन है । इस प्रकार जैन साहित्यके इतिहासको पूर्व पीठिकामें जैन साहित्यका निर्माण जिस पृष्ठभूमिपर हुआ है, उसका चित्रण करने के लिये जनधर्मके प्राग इतिहासको खोजनेका प्रयत्न किया गया है। जैन साहित्यके इतिहासका चित्रण तो आगेके दो भागोंमें है। जैन साहित्यका इतिहास-प्रथम भाग इस ग्रन्थमें दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थोंका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है । यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है। प्रथम भागके चार अध्याय हैं और द्वितीय भागको पंचम अध्यायके रूपमें निबद्ध किया गया है। __प्रथम अध्यायके तीन परिच्छेदमेंसे प्रथम परिच्छेदमें 'कसाय पाहुड', उसके रचयिता आचार्य गुणधर, उनके उत्तराधिकारी आर्यमंक्षु और नागहस्ती, कसायपाहुडकी गाथा संख्या, शैली, विषय परिचय तथा कर्म सिद्धान्तका वर्णन है। द्वितीय परिच्छेदमें छक्खण्डागम (षट्खण्डागम ), उसका रचनाकाल, रचनास्थान, रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली, ग्रन्थका नाम सतकर्म प्राभूत, तीर्थंकर महावीरकी वाणीसे इसका सम्बन्ध और स्रोतका विवरण है । इस ग्रन्थमें निम्न पाँच खण्डोंका विषय परिचय दिया गया है : १. जीवट्ठाण, २. खुद्दाबन्ध, ३. बन्धसामित्तविचय, ४. वेदनाखण्ड तथा ५. वर्गणाखण्ड । तृतीय परिच्छेदमें महाबन्ध नामक छठे खण्डका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्यायमें चूणि साहित्यका वर्णन है। दिगम्बर परम्परामें मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंके कुछ ही समय पश्चात् चूणि साहित्य लिखा गया। बीज पदरूप गाथा सूत्रोंपर ये चूर्णिसूत्र, वृत्तिका कार्य करते हुए भी अनंक नयं तथ्योंको सूत्र रूपमें प्रस्तुत करते हैं । उदाहरणार्थ, 'कसाय पाहुड', पर आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्र लिखे हैं। इस अध्यायमें चूर्णिसूत्रोंकी रचना और व्याख्यान शैली, उनका ऐतिहासिक महत्त्व, यतिवृषभकी रचनायें, चूर्णिसूत्रोंकी विषयवस्तु आदिपर अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्यायके दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें आचार्य वीरसेन द्वारा रचित छह खण्डोंपर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषामें धवला नामक टीकाका विस्तारके साथ वर्णन है । टीकाका नामकरण. महत्त्व, प्रामाणिकता, व्याख्यान शैली, विषय-परिचय, आचर्य वीरसेनका परिचय, उनका समय और उनकी रचनायें आदिका इसमें समहार है । द्वितीय परिच्छेदमें जयधवला नामक टीकाका विवरण है। यह टीका धवला टीकाके पश्चात् महत्त्वपूर्ण टीका है। यह टीका कसायपाहुड़ पर लिखी गई है और इसके टीकाकार हैं आचार्य वीरसेन और उनके योग्य शिष्य आचार्य जिनसेन । जयधवला टीकाको साठ हजार श्लोकप्रमाण बतलाया गया है। उसे तीन स्कंधोंमें विभाजित किया गया है। प्रदेश विभक्ति पर्यन्त प्रथम स्कन्ध; संक्रम, उदय और उपयोग पर्यन्त द्वितीय स्कन्ध तथा शेष भाग तृतीय स्कन्ध । ततीय परिच्छेदमें छक्खंडागमकी अन्य टीकाओंका विवरण है। वीरसेन स्वामीकी प्रसिद्ध धवला टीकाके अतिरिक्त छक्खंडागम पर अन्य टीका भी लिखी गई। कुन्द-कुन्दने परिकर्म टीका, शामकुण्डने -१०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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