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________________ समर्थन किया और समय-समयपर लेख और लेखमालाएँ लिखीं। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान, ईसाई और अन्य जातियोंके बीच एकताके संवर्द्धनमें लेख लिखे एवं पाकिस्तानवादी विचारधाराको क्षोभ और अनिष्टकी दृष्टिसे देखा। उन्होंने ग्रामोद्योग और अम्बर चरखाका समर्थन किया, भू-दानको भी उन्होंने सराहा । अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बेकारी, डांवाडोल राजनीतिक स्थितियोंने उन्हें सदैव चिन्तित किया है। राष्ट्रभाषाके प्रश्नपर भी उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं और उन्होंने हिन्दीको इस पदपर प्रतिष्ठित करनेकी वकालतकी। लेकिन वे संस्कृत-निष्ठ हिन्दीके पक्षपाती नहीं रहे। वे व्यापक राष्ट्रीय हितको विचार कर कार्य करनेवाले नेताओं तथा जनतंत्रीय पद्धतिके पोषक हैं। उन्हें देशभक्त, समाजसेवक तथा प्रश्रुत विद्वानोंकी क्षति प्रकृतिको करता ही लगती है क्योंकि इन क्षतियोंकी पूर्ति दुरूह ही प्रतीत होती है। पण्डितजीने जैन संदेशमें अपने संपादकीय कालमें कोई ९०० संपादकीय और अनेक लोकप्रिय तथा शोध लिखे हैं। इनकी सूची पृथक्से दी जा रही है। इनके संपादित संकलनसे लगभग ४००० पृष्ठका साहित्य निर्मित हो सकता है। ५. प्रशासन-स्याद्वाद विद्यालयमें अध्यापनके साथ ही उन्हें प्राचार्य के रूपमें उसका सभी दृष्टियोंसे प्रशासन भी करना पड़ा है। आधुनिक प्रशासन कलाके सिद्धान्तोंके अनुसार, अच्छे प्रशासकमें कुछ अनिवार्य गण होने चाहिये । उसे समय-समयपर वज्रादपि कठोराणि मुनि कुस्मादपिके समान रूप प्रदर्शित करने चाहिये । मौन भावसे सभी प्रकारकी अभिव्यक्तियाँ अडिग होकर सुननी चाहिये और निष्पक्षभावसे समस्याओंपर निर्णय देने चाहिये । वे यूनियनविहीन अनुशासन-प्रिय युगके प्रशासक रहे हैं और इसलिये उन्हें अनुशासनको कठोरतासे प्रतिष्ठित करना अभीष्ट रहा है। उनके अनुशासन-प्रेम के शिकार अनेक स्नातक हए हैं पर वे आज भी पण्डितजीके प्रति अपनी श्रद्धा रखते हैं। उनका मत है कि कुमार और युवावस्थाके प्रारंभ में मनुष्यम वह वैचारिक परिपक्वता नहीं आ पाती जो उसे सम्पूर्ण हिताहित एवं दूरदृष्टिके विचारकी क्षमता प्रदान कर सके । इसलिये इस अवस्थामें अनुशासन एवं नियंत्रण तो आवश्यक है ही, मार्गदर्शन भी आवश्यक है। स्याद्वाद महाविद्यालयके प्राचार्य होनेके कारण विद्यार्थियोंके अतिरिक्त अध्यापकोंपर भी पण्डितजीका प्रभाव रहा है। उनकी समयकी पाबन्दी, दूरसे दिखती हई गम्भीर मुद्राके बीच बिजली-सी क्षणिक मुस्कुराहट गहन विद्वत्ताकी छापसे सभीके मनमें उनके प्रति आदरभाव और अनुकरणीयता रही है। मुझे लगता है कि १९६० के बाद इस दिशामें काफी परिवर्तन आया होगा जो १९७२ तक तो दबी चिनगारी के रूपमें रहा, पर उनकी सेवानिवृत्ति के बाद उस परिवर्तनने विस्फोटक रूप ग्रहण करना प्रारम्भ किया । अब विद्यालय पुनः अपने पूर्ववत् अनुशासित एवं अध्ययन-अध्यापन परायण रूपको तो नहीं प्राप्त कर सकता, पर समुद्र में आई लहरें उनकी चतुरता एवं प्रशासनिक क्षमतासे शान्त हो गई हैं। ___ बहुतेरे लोग अनुशासन एवं नियंत्रण में कठोरताको पसन्द नहीं करते । मुझे दिल्लीमें विद्यालयके ही एक भूतपूर्व प्रबन्धक मिले । उनकी उद्वलित अभिव्यक्तियोंसे मुझे इस तथ्यका आभास हुआ। पर मैं मानता हूँ कि शिक्षा जगतकी अनेक समस्याओंका मल कारण इन दिशामें उत्पन्न लोचशीलता ही है। यह असीम हो गई है और शिक्षा जगत्से यह शब्द लुप्त हो गया लगता है। मुझे लगता है कि पण्डितजी भी इस स्थितिसे परम क्षुब्ध होंगे। । प्रशासनके उत्तम गुणों और उनके परिपालन करानेकी क्षमताके कारण ही वे पैंतालिस साल तक एक ही संस्थामें बने रहे । स्थानकी यह अपरिवर्तनीय एवं स्थिरता शायद काशीका प्रभाव और आकर्षण हो, पर इससे काशी गौरवान्वित ही हुई । यहाँसे जैनधर्म और संस्कृतिका प्रकाश भारतमें चतुर्दिक फैला । विद्यालयके प्रशासनके अतिरिक्त वे अनेक संस्थाओंके भी अनौपचारिक मार्गदशी प्रशासक बने -८० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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