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________________ वृत्ति तथा ज्ञान-पिपासुओंकी तृष्णाको शान्त करनेकी उत्कट इच्छको व्यक्त करती हैं। यह प्रवृत्ति ज्ञानकी दुरूहताको सरलतामें भी परिवर्तित करती है। वर्तमान अंग्रेजी प्रधान युगमें संस्कृतके धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्यको पण्डितजीने हिन्दी भाषामें अनेक प्रकारसे प्रस्तुत किया है जिससे जैनधर्म संबंधी ज्ञान उन लोगों तक भी पहुँच सके जो न संस्कृत-प्राकृत जानते हैं और न अंग्रेजी ही। इन दो भाषाओंको जानने वालोंकी संख्या है ही कितनी ? यह उनका बड़ा उपकार है कि उन्होंने अपने एक दर्जनसे भी अधिक मौलिक कृतियोंके द्वारा जैनधर्म, संस्कृति व साहित्यके विषयमें साधारण एवं प्रगत जनोंको जानकारी देनेका सफल प्रयास किया है। इनकी सहायतासे लोगोंको यह जानकारी हुई कि एतद्विषयक मान्यताओंका आधार क्या है और उन्हें किसी प्रकार सही रूपमें लिया जाना चाहिये। जैन न्याय, जैन साहित्यका इतिहास और जैनधर्म लिखकर उन्होंने अनेक विषयोंपर अपनी गरिमामय लेखनी चलाई है। उनके द्वारा लिखित मौलिक पुस्तकोंका विवरण अन्यत्र दिया गया है । पण्डितजीके मौलिक लेखनके लिये उनका विषयोंका बनाव तो महत्वपूर्ण है ही. इसके अतिरिक्त इसके लिये जो वैचारिक परिपष्टता, समचित भाषा प्रवाह और सरलता तथा अभिव्यक्तिको स्पष्टता आवश्यक है, वे भी अनेक साहित्यमें भलीभाँति परिलक्षित होते हैं। यही नहीं, जिस तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययनकी आजका नवविद्वान् चर्चा करता है और जिसके आधारपर वह अपने गुरुजनको पीढीको अनेक प्रकारसे आलोचिज्ञ करता है, वह पण्डितजीपी कृतियोंमें कूट-कूट कर भरा है। उनका आशय है कि बिना इस प्रकारके अध्ययनके वास्तविक और तथ्यपूर्ण ज्ञान प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। अनेक लोगोंको यह आपत्ति हो सकती है कि उनके लेखनमें केवल भारतीय अध्ययन या समीक्षण ही पाया जाता है, पश्चात्य नहीं। संभवत वे अपने शिष्योंसे ही इस कमीको पूरा करनेकी आशा रखते हैं। वैसे यह कहना असंगत न होगा कि उन्होंने भारतीय अध्ययनको ही अपना केन्द्र-विन्दु बनाया है क्योंकि उनका अध्यापन, लेखन तथा चिन्तन भारतीय परिवेशमें ही हुआ है। उसीकी स्पष्टता उन्हें अभिप्रेत रही है । साथ ही, पाश्चात्य विचारधाराका क्षेत्र लेखनयुगमें उतना प्रवहभान भी नहीं हो पाया था । फलतः आधुनिक दृष्टिसे स्वतः सीमित क्षेत्र में जो भी उन्होंने लिखा है, उसके विषय और कलाकी सभीने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसे पांडित्यकी अपूर्णता कहकर नकारा नहीं जा सकता । मौलिक लेखनकी अनेक विशेषताओंमें लेखककी स्वयंके मतावमतको व्यक्त करनेकी तथा उसको पुष्ट करनेकी क्षमताका गुण महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः स्वतंत्र मतोंका पुनः स्थापन ही ज्ञानके क्षेत्रका विस्तार करना है। इसके अन्तर्गत चिरप्रतिष्ठित तथ्यों व घटनाओंका पुनर्मूल्यांकन तथा नवीन व स्वतंत्र मतवादका प्रस्थापन एवं पुराने मतवादका नवीन तथ्यों व विचारोंके आधारपर खंडन-मंडन आदिका समाहरण होता है । पण्डितजी द्वारा लिखित मौलिक ग्रन्थोंमें ये सभी विशेषतायें पाई जाती हैं। वे केवल प्राचीन साहित्यके संक्षेपण मात्र नहीं हैं। यही कारण है कि उनके कुछ ग्रन्थोंका अन्य भारतीय भाषाओंमें भी अनुवाद किया गया है । उन्होंने मौलिक ग्रन्थोंके रूपमें लगभग ३७०० पृष्ठोंका साहित्य सृजन किया है। ३. सम्पादन और अनुवाद-अनेक विद्वान् संपादन और अनुवादनकी प्रक्रिया साथ-साथ करते है। संपादनकी प्रक्रिया अनुबादन कार्यके लिए इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि जब तक मूलपाठ शुद्ध एवं सर्वमान्य नहीं होता, उसका सही अर्थ कैसे क्रिया सकता है ? संपादन में ग्रन्थकी मूल प्रतियोंकी खोज तथा उनके पाठभेदोंका अध्ययन कर शुद्ध पाठका निर्धारण किया जाता है। पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने प्रमेयकमलमासण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र नामक न्याय ग्रन्थोंको इसी विधिसे संपादित किया है। संपादनकी प्रक्रियामें मुलग्रन्थोंके लेखक संबंधी विवरण और समीक्षा भी प्रस्तुत की जाती है जिसके लिए विशेष अध्ययनको -७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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