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________________ खुशहाल रहें, इसके लिए आप कोई कोर-कसर अपनी ओरसे नहीं छोड़ते । आपने हमेशा देना सीखा है । आपके शिष्यगण आपके कठोर अनुशासन, समयकी पाबन्दी और पढ़ाई-आचरणके प्रति सख्ती देख, आपके श्रीचरणोंमें मुग्धभावसे झुके रहते हैं। सार्वजनिक समारोह हो, आपके प्रतिष्ठित एवं बहुत उच्च पदपर आसीन आपके शिष्य, आपकी चरणरज अपने भालपर लगाने में गौरव महसूस करते हैं । आप सुबह पाँच बजेकी गाड़ीसे प्रवाससे आये हैं, पर ठीक ६ बजे नियत समयपर पण्डितजी विद्यालय आ जायेंगे। पण्डितजीके अनुशासन एवं कार्य-चुस्तीने पूरे भारतवर्ष में स्याबाद विद्यालयकी पताका आज लहरा दी है। रविबाबूका स्मरण करनेसे शांतिनिकेतन, योगिराज अरविन्दका स्मरण करनेसे पांडिचेरी आश्रमका ध्यान आता है। इसी भाँति पण्डितजीका स्मरण करनेसे श्री स्याद्वाद विद्यालय (वाराणसी) की स्मृति मानस-पटलपर अंकित होती है। आपके लिए श्री स्याद्वाद विद्यालय ओढ़ना-बिछौना रहा है। आपके प्रवचनोंकी पूरे भारतवर्ष में धूम मची है। जहाँ जाते हैं, वहींका समाज आपके तप, त्याग, ज्ञान और चारित्रसे मुग्ध होकर आपको अपने सर-आँखोंपर बिठाता है। समाजसे अपने लिए कभी कुछ स्वीकार नहीं करेंगे। हाँ, पत्र-पुष्प श्री स्याद्वाद विद्यालयके लिए ग्रहण कर सकते हैं। आपकी हादिक इच्छा रहती है, समाजका आपपर न्यूनतम व्यय हो। समाजके चाहनेपर भी आप प्रथम श्रेणीका मार्ग-व्यय स्वीकार नहीं करेंगे । आप अन्तरंग-बहिरंगसे सादगीमें विश्वास करते हैं। ___ आपके प्रिय शिष्योंने मुझे बताया है, पण्डितजी अपने कमरेमें विभिन्न तरहका मेवा-मिश्री रखते हैं । आपके पास जानेपर स्नेह, आशीर्वाद तथा ज्ञान तो मिलता ही है, साथमें बहुभाँतिके मेवे भी प्रसादस्वरूप ग्रहण करनेको मिलते हैं। आपका धर्मशास्त्र पर प्रवचन सुननेको सुअवसर जिन्हें मिला है, वे जानते हैं, पण्डितजी कैसे धीरेधीरे साधारण ज्ञाताको ज्ञान और धर्मकी अतल गहराईमें ले जाते हैं। श्रोता वर्ग उनकी वाणीकी सरलता, भाषापर संयम तथा ज्ञान-गांभीर्य देख मुग्ध हो जाता है । पण्डितजी नपे-तुले शब्दोंमें धर्म एवं समाज तथा शास्त्रकी बातें प्रवाहमें कह जाते हैं । समाज बारम्बार धन्य होकर साधुवाद करता है। आप अपनेसे पूर्व वक्ताके वक्तव्यमें नहीं पड़ते ।। श्री स्याद्वाद विद्यालयके मन्दिरमें आपको सामायिकमें लीन होते देखा है। दीन-दुनियासे बेखबर । बस, तद्गुण लब्धयेके ध्यानमें अपनेको आत्मसात् किये हुए । डालमियानगरमें सिद्धचक्रका पाठ हआ। आरतीके समय आप वेदीके निकट सजदेके आलममें गोया खड़े थे, लगा आपही भगवान्की वाणी सुन रहे हैं। तभी आपने उस दिन सभामें कहा था, "जिनदर्शन करते समय प्रतिमामें तुम्हें अपना रूप दिखे । यही जिनदर्शनका लक्ष्य होना चाहिये ।" डालमियानगरकी धरती आपकी चरण-धूलसे अनगिनत बार भाग्यशाली हो चुकी है। इस जन्मके यहाँ शादी-ब्याहमें पधारे हुए हैं स्थानीय पण्डितजी शादीकी रस्में, पूजा करवा रहे हैं। आप वेदीके पास बैठे रहेंगे, पण्डितजीके गुणदोष नहीं निकालेंगे, अपितु उसे प्रोत्साहन देते हैं । दावतमें चुपचाप बहुत शान्त स्वभावसे भोजन ग्रहण करेंगे। जिन खाद्य-वस्तुओंको आप स्वीकार नहीं करते हैं, उसे चुपचाप धीरेसे इस तरहसे सरका देते हैं कि बगलमें बैठे व्यक्तिको आभास भी नहीं मिलता है। -७४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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