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________________ ६१० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पचम खण्ड (६) व्याख्या-काल में आगम-पाठों के व्याख्यांशों को प्रति के आस-पास लिख रखना और कालांतर में उन व्याख्यांशों का स्वयं पाठ के रूप में प्रविष्ट हो जाना। पाठ-भेद होने के ये कुछेक मुख्य कारण हैं। इनके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य कारण भी हो सकते हैं । इन पाठभेदों के कारण कालान्तर में व्याख्याओं में भी अन्तर होता रहा और कहीं-कहीं इतना बड़ा अन्तर हो गया कि पाठक उसको देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है। आज जितने हस्तलिखित आदर्श प्राप्त होते हैं, उतने ही पाठ-भेद मिलते हैं। कोई भी एक आदर्श ऐसा नहीं मिलता, जिसके सारे पाठ दूसरे आदर्श से समान रूप से मिलते हों और यह सही है कि जहाँ हाथ से लिखा जाए वहाँ एकरूपता हो नहीं सकती क्योंकि लिपि-दोष या भाषा की अजानकारी के कारण त्रुटियाँ हो जाती हैं । प्राचीन आदर्शों में प्रयुक्त लिपि में 'थ' 'ध' और 'य' में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इस कारण से 'य' के स्थान पर 'ध' या 'थ' और 'द्य' के स्थान पर 'ध' या 'य' हो जाना कोई असम्भव बात नहीं है। इस सम्भाव्यता ने अनेक महत्त्वपूर्ण पाठों को बदल दिया और आज उनके सही रूपों के जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। उदाहरण के लिए 'थाम' शब्द 'धाम' या 'याम' बन गया। इन तीनों शब्दों के तीन अर्थ होते हैं, जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । इसी प्रकार अनेक अक्षरों के विषय में भ्रान्तियाँ हुई हैं। 'च' और 'व' के व्यत्यय से अनेक पाठ-भेद हुए हैं। आगम पाठों का संक्षेपीकरण दो कारणों से हुआ है-- १. स्वयं रचनाकार द्वारा २. लिपिकर्ता द्वारा। संक्षेपीकरण विशेषतः गद्य भाग में अधिक हुआ है, किन्तु कहीं-कहीं पद्य भाग में भी हुआ है। संक्षेप करते समय रचनाकार या लिपिकार के अपने-अपने संकेत रहे होंगे, किन्तु कालान्तर में वे विस्मृत हो गये और तब वह संक्षेप मात्र रह गया, उसके आगे पीछे का सारा अंश छूट गया । (क) रचनाकार द्वारा कृत संक्षेपीकरण--दशवकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन का छब्बीसवाँ श्लोक इस प्रकार है कण्णसोक्खेहि सद्देहि, पेम नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए । यहाँ पाँच श्लोकों का एक श्लोक में समावेश किया गया है। ऐसी स्थिति में पांच श्लोकों को जाने बिना इस श्लोक विषयक अस्पष्टता बनी रहती है। यथार्थ में पांचों इन्द्रियों के पाँचों विषयों को समभावपूर्वक सहने का उपदेश इन पाँच श्लोकों से अभिव्यक्त होता है। किन्तु श्लोकों के अधिकांश शब्दों का पुनरावर्तन होने के कारण तथा आदि, अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण होता है-इस न्याय से रचनाकार ने कर्ण, शब्द और स्पर्श का ग्रहण कर पाँच श्लोकों के विषय को एक ही श्लोक में सन्निहित कर दिया। __ चूणिकार तथा टीकाकार ने इस विषय की कुछ सूचनाएँ दी हैं, किन्तु उन्होंने पांचों श्लोकों का अर्थ नहीं किया। निशीथ-चूणि तथा बृहत्कल्प-भाष्य में आद्यन्त के ग्रहण से मध्य का ग्रहण होता है-इसे समझाने के लिए इस श्लोक को उद्धृत कर पांच श्लोक देते हुए लिखा है- ..... हे चोदग! जहा दसवेयालिते आचारपणिहीए भणियं-कण्णसोक्खेंहि सद्दे हि" एत्थ सिलोगे आदिमंतग्गहणं कथं इहरहा उ एवं वत्तव्वं : १. कण्ण सोक्खेहिं सद्दे हि, पेम्म णाभिणिवेसए । दारुणं कक्कसं सद्द सोऊणं अहियासए ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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