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________________ आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र एवं उनका नाट्यदर्पण ५६१ . ........................................................................... आचार्य रामचन्द्र की विद्धत्ता का परिचय उनकी स्वलिखित कृतियों में भी मिलता है। रघुविलास में उन्होंने अपने को 'विद्यात्रयीचरणम्' कहा है। इसी प्रकार नाट्यदर्पण-विवृत्ति की प्रारम्भिक प्रशस्ति में-'त्रविद्यवेदिनः' तथा अन्तिम प्रशस्ति में व्याकरण, न्याय और साहित्य का ज्ञाता कहा है। प्रारम्भ में कहे गये प्रभावकचरित और उपदेशतरंगिणी से यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। सिद्धराज जयसिंह ने सं० ११५० से सं० ११६६ (ई० सन् १०६३-११४२) पर्यन्त राज्य किया था। मालवा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में सिद्धराज का स्वागत समारोह ई० सन् ११३६ (वि० सं० ११६३) में हुआ था, तभी हेमचन्द्र का सिद्धराज से प्रथम परिचय हुआ था। सिद्धराज की मृत्यु सं० ११६६ में हुई थी। इस बीच रामचन्द्र का परिचय सिद्धराज से हो चुका था तथा प्रसिद्धि भी प्राप्त कर चुके थे। सिद्धराज जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने सं० ११९६ से १२३०६ तथा उसके भी उत्तराधिकारी अजयदेव ने सं० १२३० से १२३३ तक गुर्जर भूमि पर राज्य किया था। इसी जयदेव के शासनकाल में रामचन्द्र को राजाज्ञा द्वारा तप्त-ताम्र-पट्टिका पर बैठाकर मारा गया था। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आचार्य रामचन्द्र का साहित्यिक काल वि० सं० ११६३ से १२३३ के मध्य रहा होगा। ___ महाकवि रामचन्द “प्रबन्धशतकर्ता" के नाम से विख्यात हैं । इसके सम्बन्ध में विद्वानों ने दो प्रकार के विचार अभिव्यक्त किये हैं। कुछ विद्वान् "प्रबन्धशतकर्ता" का अर्थ 'प्रबन्धशत नामक ग्रन्थ के कर्ता' ऐसा करते हैं। दूसरे विद्वान् इसका अर्थ 'सौ ग्रन्थों के प्रणेता' के रूप में स्वीकार करते हैं। डॉ० के० एच० त्रिवेदी ने अनेक तर्कों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि रामचन्द्र सौ प्रबन्धों के प्रणेता थे। यह तर्क अधिक मान्य है, क्योंकि ऐसे विलक्षण एवं प्रतिभासम्पन्न विद्वान् के लिए यह असम्भव भी प्रतीत नहीं होता है। उन्होंने अपने नाट्यदर्पण में स्वरचित ११ रूपकों का उल्लेख किया है । इसकी सूचना प्रायः 'अस्मदुपज्ञे ....", इत्यादि पदों से दी गई है, जिनके नाम इस प्रकार हैं१. सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, २. नलविलास नाटक, ३. रघुविलास नाटक, ४. यादवाभ्युदय, १. पंचप्रबन्धमिषपंचमुखानकेन, विद्वन्मनः सदसि न त्यति यस्य कीर्तिः । विद्यात्रयीचरणचुम्बितकाव्यचन्द्र', कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ॥ -नलविलास-नाटक, प्रस्तावना, पृ० ३३ २. प्राणा: कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदिनोप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ।। -हिन्दी नाट्यदर्पण, प्रारम्भिक प्रशस्ति, पद्य ६१ शब्दलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रमः । वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाह्नजः ॥ -वही, अन्तिम प्रशस्ति, ४ ३. प्रबन्धचिन्तामणि-कुमारपालादिप्रबंध, पृ० ७६ ४. हिन्दी नाट्यदर्पण, भूमिका, पृ० ३ ५. द्वादशस्वथ वर्षाणां, शतेषु विरतेषु च । एकोनेषु महीनाथे सिद्धाधीशे दिवं मते ॥ -प्रभावकचरित-हेमसूरिविरचित, पृ० १६७ ६. प्रबंधचिन्तामणि-कुमारपाला दिप्रबंध, पृ० ६५ ७. त्रिवेदी, के० एच०, दी नाट्यदर्पण आव रामचन्द्र एण्ड गुणचन्द्र : ए क्रिटिकल स्टडी, प्रका० एल० डी० इंस्टी ट्यूट आव इन्डोलोजी, अहमदाबाद, १९६६, पृ० २१६-२२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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