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________________ संस्मरण ३१ मेरे सर्वस्व: मेरे भाई साहब 1 श्री भंवरलाल सुराणा, (बोलारम) मैं जब केवल उन्नीस दिन का शिशु था, मेरी माताजी ३. वात्सल्य की वर्षा स्वर्ग सिधार गईं। छः-सात वर्ष की उम्र हुई कि पूज्य 4 मेरे भाई साहब श्री केसरीमलजी सुराणा मेरे से पिताजी का साया भी मेरे सिर से उठ गया। मेरी जीवन पर शुरू से ही बड़ा प्रेम रखते आये हैं । वे एक क्षण के नौका को पार लगाने के लिए मेरे बड़े भाई साहब श्री लिये भी मुझे आँखों से ओझल नहीं होने देते । जब मैं केसरीमलजी सुराणा का ही तब से वरद हस्त मेरे पर है। मैं जो कुछ आज हूँ, वह सब उनके वात्सल्य एवं : बड़ा हो गया तो मुझे व्यापार के काम से कभी बाहर नहीं भेजते । एक बार की बात है जब मैंने भी व्यापार अनुशासन के कारण ही हूँ, वे मेरे लिये जितने सहज एवं में उनका हाथ बँटाने का निवेदन किया तो भाई साहब ने स्नेहपूर्ण थे, मेरे जीवन को बनाने के लिये उतने ही कठोर भी थे । मेरे लिये तो वे पिता, बड़े भाई, गुरु, आराध्य मुझे पूरना (हैदराबाद) में कुछ सामान की खरीददारी के लिए भेज दिया । मुझे पूरना से वापस दूसरे दिन रात सब कुछ वे ही हैं । आदरणीया भाभीजी सुन्दरदेवी ने तो को आठ बजे बोलारम पहुंचना था, लेकिन दैवयोग से मुझे माँ जैसा स्नेह दिया । आप दोनों ने मेरा जीवन कैसे । गाड़ी खराब हो गयी और रात को ढाई बजे गाड़ी बोलाबनाया, उसके कुछ संस्मरण याद आ रहे हैं, उन्हें यहाँ रम स्टेशन पर पहुंची, उस समय देखता क्या हूँ कि भाई व्यक्त कर रहा हूँ: साहब यात्रियों की भीड़ में बड़ी उत्सुकता से किसी को १. सिगरेट आरोगिये हूँढ रहे हैं, ज्योंही मैं उन्हें नजर आया उन्होंने दौड़कर मैंने एक बार बुरी संगत से सिगरेट पीना सीख मुझें छाती से लगा लिया, उनकी आँखों में आँसू भर आये। लिया । न जाने छुपाने पर भी भाई साहब को कैसे पता राम-भरत के मिलाप का दृश्य पैदा हो गया । रुधे गले चला, पर उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा से बोले-गाड़ी नहीं आने से मेरे मन में तरह-तरह के विराजिये । मैं समझ गया आज कोई पेशी का जवाब देना विचार आ रहे थे । घर पर समय नहीं कट रहा था। पड़ेगा । फिर नौकर सैयद से कहा एक सिगरेट लाना तो, एक-एक क्षण एक-एक वर्ष की तरह लग रहा था, इसीलिए जब सिगरेट आ गई तो मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- स्टेशन पर आगया। जब हम स्टेशन से घर आये तो मेरी आरोगिये, इसी में ही तो आपको आनन्द आता है न! पूजनीया भाभीजी से उन्होंने कहा-इसे बहुत भूख लगी उसके साथ ही कसकर दो-चार चाँटे जमाये। जिसकी होगी, इसे चावल प्रिय हैं । इसे चावल बनाकर खिलाओ, चोट आज तक भी मुझे याद आती है, इसके साथ ही मेरा तब सोने दो और हुआ यही, उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से चावल सिगरेट पीना भी छूट गया। 0 खिलाकर सुलाया। २. मेरी आँखें खुल गई मेरे प्रति उनका कितना अनुराग था, इसकी एक ___ जब मैं छोटा था, मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता था, घटना और याद आ रही है। उस समय राणावास में इसलिए समवयस्कों के साथ कहीं भी खेलने निकल जाता। धनराजजी स्वामी विराज रहे थे और मांडा गाँव में एक दिन भाई साहब श्री केसरीमलजी सुराणा को पता साध्वी रुक्माजी विराज रही थीं। साध्वी रुक्माजी के चला तो उन्होंने मुझे एक भारी काठ के बक्से के साथ साधुजीवन में कुछ शिथिलाचार आ गया था । आचार्य श्री बाँध दिया। दुकान से घर तक जाना होता तो पेटी को तुलसी का आदेश आया कि रुक्माजी को समझाया जावे हाथ में लेकर बंधे पैर से ही जाना पड़ता था। यों सात और कहा जावे कि या तो वे तेरापंथ धर्मसंघ की मर्यादा दिन तक कैदी की तरह रहने पर मेरी आँख खुल गई पालें अथवा संघ से अलग हो जायें । मैं, धनराजजी स्वामी और अक्ल ठिकाने आगई । वे मुझे एक पल भी आँखों से और श्री बस्तीमलजी छाजेड़ उन्हें समझाने मांडा गये । दूर नहीं रखना चाहते और न ही मेरी जिन्दगी बर्बाद उन्हें काफी समझाया लेकिन वे नहीं मानीं। जब हम होना उन्हें मंजूर था। आज जो कुछ मैं हूँ, वह सब उनके वापस राणावास लौटे तो रास्ते में पानी का एक नाला पुण्य प्रताप और कठोर अनुशासन के कारण ही हूँ। 0 पड़ता है, उसमें पानी बहुत था, उसे पार करना उचित -0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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