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________________ . राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५४७ । ... ग्रन्थराज 'समयसार' पर आचार्य अमृतचंद्र ने 'आत्मख्याति' नामक बहुत ही गम्भीर संस्कृत टीका लिखी है, उसी के बीच-बीच उन्होंने संस्कृत भाषा के विभिन्न छन्दों में २७८ पद्य लिखे हैं, उन्हें 'समयसारकलश' कहा जाता है। पाण्डे राजमल्लजी ने उस 'समयसारकलश' के भावों को स्पष्ट करने वाली 'बालबोधिनी' टीका राजस्थानी हिन्दी भाषा में लिखी है। जिसके माध्यम से उस समय अध्यात्म का प्रचार घर-घर में हो गया था। उसी के आधार पर आगे चलकर महाकवि बनारसीदास ने अपने लोकप्रिय पद्यग्रन्थ 'नाटक समयसार' की रचना की है। जैसा कि उन्होंने स्वयं 'नाटक समयसार' की प्रशस्ति में स्पष्ट उल्लेख किया हैं : पांडै राजमल्ल जिनधर्मी, समयसार नाटक के मर्मी । तिन्हे ग्रन्थ की टीका कीनी, बालबोध सुगम कर दीनी ॥ इह विधि बोध वचनिका फैली, समै पाइ अध्यात्म सैली । प्रगटी जगत मांहि जिनवाणी, घर-घर नाटक कथा बसाली ।। नाटक समसार हित जी का, सुगत रूप · राजमल टीका । कवित बृद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रन्थ पढ़ सब कोई ॥ तब बनारसी मन में आनी, कीजै तो प्रगटे जिनवानी । पंच पुरुष की आज्ञा लीनी, कवित्त बद्ध की रचना कीनी ॥ महाकवि बनारसीदास को आत्माभिमुख करने का श्रेय उक्त बालबोधिनी टीका को ही प्राप्त है। राजस्थानी के प्रसिद्ध विद्वान् अगरचंद नाहटा ने इस टीका को हिन्दी जैन गद्य की प्राप्त रचनाओं में प्राचीनतम गद्य रचना माना है एवं पांडे राजमल्ल की इस देन को उल्लेखनीय माना है।' यह टीका पुरानी शैली पर खण्डान्वयी है । शब्द पर्याय देते हुए भावार्थ लिखा गया है । यद्यपि इसकी भाषा संस्कृतपरक है, पर कठिन नहीं। वाक्यों में प्रवाह बराबर पाया जाता है। इस बालाबोधिनी भाषा टीका का गद्य इस प्रकार है : "यथा कोई जीव मदिरा पीवाइ करि अविकल कीजै छ, सर्वस्व छिनाई लीजै छ। पद ते भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि तांई लेइ करि सर्व जीव राशि रागद्वेष तै ज्ञानावरणादि कर्म को बंध होई छ। पांडे हेमराज-पांडे राजमल्लजी की 'समयसार कलश' पर लिखी बालबोधिनी टीका से प्रेरणा पाकर आगरा निवासी कँवरपाल जी ने इसी प्रकार की टीका कुन्दकुन्दाचार्य के दूसरे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'प्रवचनसार' की टीका करने का आग्रह पांडे हेमराज से किया, परिणामस्वरूप वि० सं० १७०६३ तदनुसार ईस्वी, सन् १६५२ में पांडे हेमराज जी द्वारा 'प्रवचनसार' पर 'बालबोध' भाषा टीका लिखी गई। उसकी प्रशस्ति में निम्नानुसार उल्लेख पाया जाता है : बाल बोध यह कीनी जैसे, सो तुम सुनहु कहूँ मैं तैसे । नगर आगरे में हितकारी, कंवरपाल ग्याता अविकारी ॥ तिन विचार जिय में इह कीनी, जो भाषा इह होई नवीनी । अल्प बुद्धि भी अरथ बखाने, अगम अगोचर पद पहिचाने । यह विचार मन में तिन राखी, पांडे हेमराज सो भाखी। आगे राजमल्ल जी नै कीनी, समयसार भाषा रस भीनी॥ अब जो प्रवचन की हू भाषा, सौ जिनधर्म व बहु साखा । तात काहू विलम्ब न कीजै, परम भावना अंगफल लीजै॥ १. हिन्दी साहित्य, द्वि० ख०, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, पृ० ४७६ । २. हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, पृ० ४६७-७७ ३. प्रवचनसार भाषा टीका, प्रशस्ति, छन्द ११ ४. वही, छन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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