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________________ • ५३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 'बस कर जमला । बसकर, एताही मैं तसकर ।' जद रूई रो धणियाणी हंसवा लागी । जद पीजारो बोल्यो-'हंसेगा सो रोवेगा'।। जद धणियाणी बोली-किसका आंण पजोवेगा? ए रोस्यूं मैं क्यूँ । रजाई तो पूरी भरनी ही पड़सी। मैं जाणं है तू कोठी में रूई घाली है । पण बीरा ! थारै ध्यान में रेहवं-मैं कीन की बत्ती ही लेसू, घटती कोनी ल्यूं।' (३) ठग साधू-एक साहूकार परणीज नै परदेश गयौ । बार वरस तांई परदेस रह्यो । लाखा रुपैइया रो माल कमायो । सोनो, रूपो, हीरा, पन्ना माणक, मोती (तथा) अवर वस्तु लेने घरै आयो। संसार रा सुख भोगवतां एक बेटो हुआ। धणी धण्यांणी दोय जणा; तीजो डावडो । पेहर दिन पाछलो रहै; जद सेठ घर आवै । हवेली रा दरवाजा जड़ दे। ऊपर मालिया मैं इस्त्री सहित बैठो रेवै । मालिया में ईज रसोइ जीमने सूय रहै। एक ठग अतीत रै भेख गांम में फिरै । इण सेठ रा घर री हगीगत सारी धारी । दोफारां हवेली में आयनै लुक गयौ । सदा री रीते सेठ आयन; बारणा जडने; रसोई जीमने राते सूतो। अबे ठग ऊँचो आयो। साहूकार रों मोहरां री गांठडी बांधी । धणी धण्यांणी दोनूई नींद में सूता । अतीत छोरा रै हेठे गोबर न्हाखनै चूंठियो भर्यो जद छोरो रोवा लाग्यो । स्त्री जागी। धणी नै जगायो (कह्यो) छोर हांग्यो है, सो चालो; बारे ले जायने धोबां। अ तो दोई बारे धोवा गया । लारे ठग मोहरां लेन; हवेली रा दरवाजा खोलने निकल गयो। इसा ठग संसार में साधू रा भेख लिया फिरे। (४) नव नाता-एक पीजारो नव नाता न्यायो। पीजण सूं रूई पीजतो हो कि नवमा नातावाली पीजारी आई । तिण ने देख ओ अहंकार में बोल्यो-नवधर, नवधर, नवधर, नवधर ।' जद पीजारी पिण टेढ़ में एक दूहो बोली नवधर-नवधर क्या करै, मुझे आत है रीस । तूं मरसी जद और करूंगी, तो पूरा हवेला वीस ॥ ईसा अहंकारी भिनख भूडा दीसे । - व्याकरण-जैन आगमों को समझने के लिए उनके व्याख्या-ग्रन्थों (टीकाओं) को समझना बहत आवश्यक है। टीकाएँ संस्कृत भाषा में लिखी गई हैं। संस्कृत का अध्ययन श्रम-साध्य है। श्रीमज्जयाचार्य आगम के पारगामी बहुश्रुत विद्वान थे । संस्कृत की टीकाओं के अध्येता थे, फिर भी संस्कृत भाषा को क्रमबद्ध सीखने की उनकी लालसा बनी रहती थी। वि० सं० १८८१ का उनका चातुर्मास मुनि हेमराजजी के साथ जयपुर में था। वहाँ एक श्रावक का लड़का संस्कृत व्याकरण पढ़ता था। कहा जाता है कि वह 'हटवा' जाति का था।' श्री मज्जयाचार्य उस समय इक्कीस वर्ष के युवा साधु थे। वह लड़का प्रतिदिन उपासना करने आता और दिन में जो कुछ स्कूल में पढ़ता, वह रात्रि के समय जयाचार्य को सुना देता। वे दूसरे ही दिन उन सुने हुए व्याकरण सूत्रों को वृत्ति सहित कंठस्थ कर लेते और उसकी साधनिका (शब्दसिद्धि की प्रक्रिया) को राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध करके लिख लेते । यह ग्रन्थ 'पंच संधि की जोड़' के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें २०१ दोहे हैं। इसी प्रकार सारस्वत चन्द्रिका का आख्यात प्रकरण भी 'आख्यात री जोड़' के नाम से निर्मित हुआ है। साधनिका-यह गद्य कृति है। इसका ग्रन्थमान १८०० पद्य परिमाण है। इसमें सारस्वत चन्द्रिका के कुछ स्थलों की ससूत्र सिद्धि की गई है। इस प्रकार श्रीमज्जयाचार्य ने व्याकरण को सबके लिए सरल-सुबोध बनाने के लिए राजस्थानी गद्य-पद्य में उसका रूपान्तरण किया। १. तेरापंथ का इतिहास, पृ० २५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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