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________________ ५२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इन नामों में सम्बन्धित कुछ काव्य रचनाओं के नाम हैं-भोज चरित (मालदेव) अंबड चरित (विनयसुन्दर)२ नवकार प्रबन्ध (देवाल), भोजप्रबन्ध (मालदेव), कालिकाचार्य कथा, आषाढ़भूति चौपाई सम्बन्ध (कनकसोम)५ विद्या-विलास (हीरानन्द सूरि)।६ (५) पवाड़ो और पवाड़ा-पवाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति भी विवादास्पद है। डॉ. सत्येन्द्र, इसे परमार शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं। पंवाड़ो में वीरों के पराक्रम का प्रयोग होता है। यह महाराष्ट्र का प्रसिद्ध लोकछन्द भी है। बंगाली में वर्णात्मक कविता अथवा लम्बी कविता के कथात्मक भाग में पयार कहते हैं। बंगाली में भी यह एक छन्द है। पयार की उत्पत्ति संस्कृत के प्रवाद से मानी जाती है। डॉ० मंजुलाल र० मजुमदार के अनुसार पंवाड़ो वीर का प्रशस्ति काव्य है। रचनाबन्ध की दृष्टि से विविध तत्त्वों के आधार पर वे आसाइत के हंसावली प्रबन्ध, भीम के सदयवत्सवीर प्रबन्ध तथा शालिसूरि के विराट पर्व के अन्तर्गत मानते हैं ।१० पवाडा के लिए प्रवाडा शब्द का भी प्रयोग मिलता है।११ इस प्रकार पवाडा या पवाडो का प्रयोग कीर्ति गाथा, वीरगाथा, कथाकाव्य अथवा चरित काव्यों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के प्रवाद शब्द से मानी जा सकती है-सं० प्रवाद > प्रा. पवाअ>पवाड़अ-पवाडो। चारण-साहित्य में इसका प्रयोग बहुधा वीर-गाथाओं के लिए हुआ है तथा जैन साहित्य में धार्मिक ऋषि-मुनियों के वर्चस्व को प्रतिपादित करने वाले ग्रन्थों के लिए। जैन साहित्य में इस नाम की प्रथम रचना हीरानन्दसूरि रचित विद्याविलास पवाडा (वि० सं० १४८५) को माना जाता है ।१२ ऐसी ही अन्य कृति हैबंकचूल पवाड़ो (ज्ञानचन्द्र)।3 (६) ढाल-किसी काव्य के गाने की तर्ज या देशी को ढाल कहते हैं। १७वीं शताब्दी से जब रास, चौपाई आदि लोकगीतों की देशियों में रचे जाने लगे तब उनको ढालबंध कहा जाने लगा। प्रबन्ध काव्यों में ढालों के प्रयोग के कारण ही इसका वर्णन प्रबन्ध काव्य की विधा में किया जाता है, अन्यथा यह पूर्णतः मुक्तक काव्य की विधा है। जैन-साहित्य में अनेक भजनों का ढालों में प्रणयन हुआ। मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने लगभग २५०० देशियों की सूची दी है ।१४ कुछ प्रमुख ढालों के नाम इस प्रकार हैं-ढाल वेली नी, ढाल मृगांकलेखा नी, ढाल संधि नी ढाल वाहली, ढाल सामेरी, ढाल उल्लाला।१५ १. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ. ३०५ २. राजस्थान भारती, भाग ५, अंक १, जनवरी, १९५६ ई० ३. जैन गुर्जर कविओ, पृ० ३७ ४. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ०६८-१०० ५. युगप्रधान श्री जिनचंद्र सूरि, पृ० १९४-९५ ६. डॉ. माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४८ ७. मरुभारती, वर्ष १, अंक ३, सं० २०१० ८. कल्पना, वर्ष १, अंक १, १९४६ ई० (हिन्दी और मराठी साहित्य-प्रभाकर माचवे) ६. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २३८ १०. गुजराती साहित्य नो स्वरूपो, पृ० १२३, १२५ ११. मुहता नैणसी री ख्यात, भाग १, पृ० ७१ १२. गुर्जर रासावली-एम० एस० यूनीवर्सिटी प्रकाशन १३. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, पृ० ५४३-४४ १४. आनन्द महाकाव्य महोदधि, मौ० ७ १५. सं० भंवरलाल नाहटा-ऐतिहासिक काव्य संग्रह - 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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