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________________ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................. (हंसों ने तुझसे गमन का अभ्यास किया, कलकंठी ने कोमल आलाप करना जाना, कमलों ने चरणों से कोमलता सीखी, तरुपल्लवों ने तुम्हारी हथेलियों का विलास सीखा तथा बेलों ने तुम्हारी भौंहों से बांकपन सीखा। इस प्रकार ये सब तुम्हारे शिष्यभाव को प्राप्त हुए हैं ।) महाकवि पुष्पदन्त वस्तु-वर्णन करने में सिद्धहस्त थे। राजगृह का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि मानों वह (नगर) कमल-सरोवर रूपी नेत्रों से देखता था, पवन द्वारा हिलाये हुए वनों के रूप में नाच रहा था तथा ललित लतागृहों के द्वारा मानों लुका-छुपी खेलता था । अनेक जिनमन्दिरों द्वारा मानों उल्लसित हो रहा था जोयइ व कमलसरलोयणेहि णच्चइ व पवण हल्लियवणेहिं । ल्हिवकइ व ललियवल्लीहरेहि उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहि ।। -ण० कु० च० १७ वीरकवि द्वारा चांदनी रात का एक मनोरम दृश्य बड़ा ही सूक्ष्म और मौलिक उद्भावनाओं से युक्त है। यथा-गतपतिकाओं के द्वारा अपने हृदयों पर कंचुकी के साथ-साथ गगनांगन में चन्द्रमा शीघ्र उदित हुआ; (जो ऐसा शोभायमान हुआ) मानों घना अन्धकार फैल जाने पर सुन्दर नेत्र वाली नवलक्ष्मी के द्वारा दीपक जलाया गया। ज्योत्स्ना के रस (चांदनी) से भुवन शुद्ध किया गया मानों उसे क्षीरोदधि में डाल दिया गया हो । कामदेव के बन्धु चन्द्रमा की किरणें----क्या गगन अमृत बिन्दुओं को गिरा रहा है, क्या कर्पूर-प्रवाह से कण गिर रहे हैं, क्या श्रीखण्ड के प्रचुर रस-सीकर गिर रहे हैं ? (ऐसा लगता है मानों) लार फैलाता हुआ मार्जार गवाक्ष-जालों को गोरस की भाँति से चाटता है इत्यादि-- जालियाउ गयवहहिययहि सहुँ उडउ नहंगणे मयलंछणु लहु । भमिए तमंधयार बर अच्छिए दिण्णउ दीवउ णं नहलच्छिए। जोहारसेन भुवणु किउ सुद्धउ खीरमहण्णवम्मि णं छुद्ध उ । कि गयणाउ अभियलवविहडहिं किं कप्पूरपूरकण निवडहिं । किं सिरिखंडबहलरससीयर मयरद्धयबंधवससहरकर । जाल गवक्खई पसरियलालउ गोरस भंतिए लिहइ विडालउ । -ज०सा०च० ८.१५ रोमांच प्रबन्ध काव्य अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य लोकमानस से अधिक अनुप्राणित हैं । अत: उनमें लोककथा के अधिकांश गुण समाहित हए हैं, जिनमें काल्पनिकता और रोमांचकता प्रधान है। इसमें अतिशयोक्तिपूर्ण बातों के द्वारा कथानायक के चरित्र का उत्कर्ष बतलाया गया है । अपभ्रंश ने इस शैली को एक ओर जहाँ लोक से ग्रहण किया है, दूसरी ओर वहाँ प्राकृत की रोमांचक कथाओं से । पादलिप्तसूरि की 'तरंगवतीकथा' में आदि से अन्त तक रोमान्स हैं । सच्चे प्रेम की यह अनूठी गाथा है। इसी प्रकार की 'लीलावती', 'सुरसुन्दरी चरित्र', 'रत्नशेखरकथा' आदि अनेक रचनाएँ प्राकृत में हैं, जिनके शिल्प का प्रभाव अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों पर अवश्य पड़ा होगा। ___ अन्य प्रबन्धकाव्यों की तुलना में अपभ्रंश के इन कथात्मक प्रबन्धों की अलग विशेषताएँ हैं । इनकी एक विशेषता बड़ी उनका प्रेमाख्यान-प्रधान होना तथा साहसिक वर्णनों से भरा होना है। इन काव्यों में किसी चित्र-दर्शन आदि द्वारा नायक-नायिका का एक दूसरे के लिए व्याकुल हो जाना, प्राप्ति का उपाय करना, वियोग में झूरना, अनहोनी घटनाओं द्वारा मिलन तथा पुन: बिछोह होना और अन्त में सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सफल होने का वर्णन उपलब्ध होता है । अपभ्रंश के प्रमुख रोमांचक प्रबन्धकाव्य हैं - १. विलासवती कथा (साधारण सिद्धसेन) २. जिनदत्तकथा (लाखू) ३. पउमसिरिचरिउ (धाहिल)। कवि की यह रचना अत्यन्त ललित है । कवि ने इसे 'कर्णरसायन धर्मकथा' कहा है। इस कथा में एक धनी परिवार की विधवा पुत्री की स्थिति का अंकन है । काव्य सरस एवं भावपूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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