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________________ ५०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .---.-.-.-.-.-.-.-.-................................................... सम्दर्भ २: वैराग्य भाव __ अपभ्रंश चरिउकाव्यों में वैराग्यभाव का वर्णन एक अपरिहार्य सन्दर्भ है। चरिउकाव्यों के मोटिफ का यह महत्त्वपूर्ण कथ्य-अंग है । जहाँ भी वैराग्य भाव के उदय का प्रसंग आया है, दुःख की अधिकता, मृत्युलोक की भीषणता, शरीर-भोगजन्य बन्धन, सुख की अत्यल्पता सर्वत्र कथित है। कतिपय उदाहरण देखें१. हु महुविन्दु सम, दुहु मेरू सरिस पवियम्मइ । -(पउमचरिउ, २२, २) रयणायरतुल्लउ जेत्थ दुक्खु महुविन्दुसमाणउ भोयसुक्खु । -(करकंडुचरिउ, ६, ४) इन अलंकार रचनाओं में सुख की तुलना 'मधुविन्दु' से एवं दुःख की तुलना 'मेरु' पर्वत तथा 'सागर' से की गई है। 'मधुबिन्दु' अपभ्रंश काव्यों की कथानक रूढ़ि है और मोटिफ के मूलभाव को पुष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया गया है। जहाँ भी ये रचनाएँ प्रयुक्त हुई हैं उपमासूचक रूपिम इनमें अनिवार्यतः है। अतएव यह उपमा संरचना इस प्रसंग में सन्दर्भबद्ध हो गई है। सन्दर्भ ३ : पूर्वजन्म का स्मरण भवान्तर स्मरण के प्रसंग से ज्ञानोपलब्धि अपभ्रंश चरिउकाव्यों में वर्णित है। पउमचरिउ में भामंडल का प्रसंग है पत्त वियडढ पुरू तं णिएवि जाउ जाईसरू । अण्णहि भव गहणे हउं होन्तु एत्थु रज्जेसरू । मुच्छाविउ तं पेखेंवि पएसु संभरेंवि भवन्तरु णिखसेसु ॥ भामण्डल' पूर्वजन्म के वृत्तान्त का स्मरण का वैराग्य प्राप्त करता है और 'जंबुसामिचरिउ' में सागरचन्द पूर्वजन्म के वृत्तान्त को जानकर दीक्षा ग्रहण करता है तुहु अणुउ रासि जो सो वि बुहु चक्कबइमहापउ मंग रूहु । अहिहाणे सिवकुमारू अभउ इह कहिउ भवन्तरू सिन्धुलउ । -(जं० सा० चरिउ, ३, ५) इन प्रसंगों में रूपिमों का आवर्तन होता है। कर्ममूचक 'उ' विभक्तियुक्त, 'भवन्तरू' पद का आवर्तन इस विशेष प्रसंग में हुआ है। यह प्रसंग भी अपभ्रंश चरिउकाव्यों के मोटिफ का प्रत्यापक है। जैसाकि स्पष्ट है कि अपभ्रंश काव्यों में सन्देश की प्रवृत्ति का प्रेरक आवेग है। 'मयणपराजयचरिउ' तो स्पष्टतः (प्रतीकों का आश्रय लेते हुए भी) सन्देश है । सभी अपभ्रश काव्यों का मोटिफ एक ही है, अन्तर उसके विस्तार में है । कवि के कवित्व का दर्शन उसके द्वारा प्रयुक्त भाषिक संरचनाओं में व्यक्त उसकी कल्पना में होता है । यह स्थिति इतनी स्पष्ट है कि अपनी कल्पना के आवेग को रचयिता वर्णन के प्रसंग में धारा की भाँति प्रवाहित करता है, परिणामतः एक ही संरचनाओं का आवर्तन जलावों के समान होता है, एक निश्चित गति से, निश्चित दिशा में। अतएव, सन्दर्भो में निश्चित संरचना का आवर्तन कवि की दृष्टि का परिचायक है । 'जंबुसामिचरिउ' के निम्नलिखित प्रसंग को देखें १. जालियाउ गयवइहिययहि सहुं उडुइ नहंगणे मयलंछणु लहु । भमिए तमंधयार बरअच्छिए, दिण्णउ दीवउ णं नहलच्छिए । १. जोण्णहारसेण भुवणु किउ सुद्धउ खीरमहण्णवम्मि णं छुखउ । ये दोनों उत्प्रेक्षा संरचनाएँ हैं । चन्द्रमा की किरणें धरती पर बरस रही हैं उस सौन्दर्य से कवि के मन में जो आनन्द का आवेग उत्पन्न होता है उसे निम्नलिखित 'कि............' संरचना के आवर्तन में साकार होता देखा जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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